पृष्ठ:वोल्गा से गंगा.pdf/११५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

बोगासे गंगा भी लगने लगी है, इसीलिए ब्रह्म-क्षत्र-बल मैत्री स्थापित क्रनेकी भारी कोशिशकी जा रही है। एक कुलके इन दोनों वर्गों के बाहर जनकी भारी सख्या हैं, यह तीसरा वर्ग हैं । आज इस महाजनका नाम बदलकर . उसे किश् ( विट् ) या प्रजा रख दिया गया है। कैसी विडम्बना है, जो जन ( पिता ) था, जैसे ही आज प्रजा ( पुत्र ) कहा जाता है । आर्य ! यह क्या सरासर वचना नहीं है ? ‘और पुत्र ! तूने एक भारी संख्याको नहीं गिना ।। 'हाँ, आर्य जनसे भिन्न प्रजाशिल्पी, व्यापारी, दास-दासी । शायद इन्हीं के कारण सामन्त जनको अधिकारसे वचित करनेमें सफल हुए । अपने शासक जनको अपने ही समान किसके द्वारा परतन्त्र हुआ देख आर्य-भिन्न प्रजाको सन्तोष हुआ । इसे ही राजाने अपनान्याय हो ।' 'शायद, पुत्र ! तू ग़लती नहीं कर रहा है ; किन्तु यह तो बताओ, राज्य किसको लौटाया जाय १ चोरों-अपहारकों-सामन्तों और व्यापारियोंकों भी ले ले- को छोड़ देनेपर आर्य-जन और अनार्य-प्रजाकी सबसे भारी संख्या है, क्या वे राज्य सँभाल सकते हैं ? और इधर धर्मसामन्त और राज-सामन्तके गिद्ध मेरे छोड़ते ही प्रजाको नोच खानेके लिए तैयार हैं । कुरु-पचालमे जनके हाथसे राज्य छिने छै ही सात पीढ़ियाँ बीती हैं, इसलिए हम जनके दिनोंको भूले नहीं हैं । उस वक्त इस भूमिको दिवोदासक राज्य नहीं, पचालाः ( सारे पंचालवाले ) कहते और समझते थे ; किन्तु आज तो मुझे वहाँ लौटनेका रास्ता नहीं दीखता ।' 'हाँ, रास्तेमे ये वशिष्ठ, विश्वामित्र-जैसे ग्राह जो बैठे हुए हैं । 'इसे हमारी परवशता समझ, इम कालको पलट नहीं सकते, और कुल कहाँ पहुँचेगे, इसका भी हमें पता नहीं । मुझे इससे सन्तोष है कि मुझे सुदास जैसा पुत्र मिला है। मैं भी किसी वक्त तरुण था। अभी उस वक्त तक वशिष्ट और विश्वामित्रकी कविताओं, उनके प्रजाक्री