पृष्ठ:वोल्गा से गंगा.pdf/११९

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८-वाह स्थान-१ बात ( युक्त-प्रांत ) । काल---७०७ ई० पू० । एक ओर हरा-हरा चन, उसमे फले करौंदोंका भादक गंध पक्षियोंका मधुर कूजन; दूसरी ओर बहती गगाकी निर्मल धारा, उसकी कछारमें चरती हमारी हज़ारो कपिला-श्यामा गाएँ, जिनके बीच हुँकरते विशाल बलिष्ट वृषभ-कभी इन दृश्यासे भी आँखोंको तृप्त करना चाहिए, प्रवाहण ! तू तो सदा कभी उद्गीथ ( साम )के गानेमे लगा रहता है और कभी वशिष्ट तथा विश्वामित्रके मन्त्रों की श्रावृत्तिमै । "लोपा, तेरी आँखे वह दृश्य देखती हैं और मैं तेरी आँखों को देख कर तृप्त हो जाता हैं। | "हम्मू, तू बात बनाने में भी चतुर हैं, यद्यपि जिस वक्त तुझे उन पुराने गानों को श्वान-स्वरमें अपने सहपाठियोंके साथ दोहराते देखती हैं, तो समझती हैं कि मेरा प्रवाहण जिन्दगी भर स्तनपायी बच्चा ही रहेगा ।' 'सचमुच, प्रवाहणकै बारेमे तेरी यही सम्मति है, लोपा !! ‘सम्मति कुछ भी हो; किन्तु उसके साथ एक पक्की सम्मति है कि प्रवाहण सदाके लिए मेरा है।' इसी आशा और विश्वास से, लोपा, मुझे श्रम और विद्या अर्जन करनेमें शक्ति मिलती है। मैं अपने मनपर जबर्दस्त संयम करनेमे अभ्यस्त हैं, नही तो कितनी ही बार मेरा मन इन पुरानी गाथाओं, पुराने मन्त्रों और पुराने उद्गीथको रटनेसे भाग निकलना चाहता है। जिस वक्त परिश्रमसे वह थक जाता है और सब-कुछ छोड़ बैठना चाहता है, उस वक्त मुझे और कोई दवा नहीं सूझती, सिवा इसके कि लोपाके साथ बितानेके लिए कुछ क्षण मिले ।'