पृष्ठ:वोल्गा से गंगा.pdf/१२२

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प्रवाह १२१ मामाके डरसे मैं अपना पाठ याद करनेमें लगा रहता और जव थक जाता, तो तेरे पास आ जाता ।। और वेरे ही लिए मैं भी तेरे पास बैठने लगी । 'और मैं समझता हूँ, लोपा, यदि तू मुझसे आधा भी परिश्रम करती, तो मामाके अन्तेवासियोंमें सबसे आगे बढ़ जाती । | 'लेकिन तुझसे नहीं लोपाने प्रवाहणकी आँखोंको एक बार खूब गौरसे देखकर कहा--मै तुझसे आगे बढ़ना नही चाहती है। 'किन्तु मुझे प्रसन्नता होती ।' 'क्योंकि हम दोनों में अलग अपनापन नहीं है ।। लोपा, तूने मेरे मन में उत्साह ही नहीं शरीरमें वल भी दिया । मैं रातको कितना कम सोता था ! फिर स्वयं रटने और दूसरोंको रटानेमें खाना-पीना तक भूल जाता था। मुझे स्वाध्याय-गृहकै अँधेरेसे निकालकर जबर्दस्ती कभी बन कभी उद्यान और कभी गंगाकी धारामें ले जाती। मुझे ये चीजें अच्छी लगती हैं, लोपा ! किन्तु साथ ही मैं चाहता हूं तीनों वेदों और ब्राह्मणोंकी सारी विद्याओंको शीघ्र-से-शीघ्र समाप्त कर डालें ।' किन्तु अब तो दू समाप्तिपर पहुंच चुका है । पिता कहते हैं कि प्रवाहण मेरे समान है। “यह मैं भी समझता हूँ। ब्राह्मणोंकी विद्या पढ़नेको अवे बहुत कम रह गई है। किन्तु विद्या ब्राह्मणों ही तक समाप्त नहीं हो जाती। 'यही मैं तुझसे कहनेवाली थी । किन्तु क्या अभी यह तेरा पलाशदण्ड और रूखाकेश चलता ही रहेगा ? | ‘नहीं इसकी चिन्ता मत कर, लोपा ! पलाशदण्ड अब छूटनेवाला है। और सोलह सालके इन रूखे केशीम तू सुगन्धित नेल डालनेको स्वतन्त्र होगी । "प्रबाहए, मेरी समझमें यह नहीं आता कि रूखे केशोंके लिए इतना ज़ोर क्यों ? तूने तो मेरे इन ओठोंका चूमना कभी छोड़ा नहीं ।