पृष्ठ:वोल्गा से गंगा.pdf/१२४

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प्रवाहण १२३ वेदको याद नहीं किया हैं; किन्तु उनको समझते हुए मैने सबसे सुना है। वहीं सिर्फ आँखौंको न दिखलाई देने वाली वस्तुओं, लोकों और शक्तियों का प्रलोभन या भय-मात्र दिखनाया गया हैं। प्रवाहणने लोपाके आरक्ष कपोतोंको अपनी आँखोंमे लगाकर कहा-'हमारा प्रेम मतभेद रखने हीके लिए हुआ है। ‘और मतभेद हमारे प्रेमको और पुष्ट करता है।' "ठीक कहा, लोपा ! यदि इन्हीं बातों को कोई दूसरा कहता, तो मैं कितना गरम हो जाता, किन्तु यह जव तेरे इन अधरोंसे अपने सारे देवताओं, ऋषियों और आचार्यों के ऊपर प्रखर वाण छोड़े जाते देखता हूँ, तो बार-बार इन्हें चूमने की इच्छा होती है । क्यों ?' 'क्योंकि हमारे अपने भीतर भी दो तरहके विचारोंके इन्दु अक्सर चलते रहते हैं, और हम उनके प्रति सहिष्णुता रखते हैं, इसीलिए कि वह हमारे अभिन्न अंग हैं । “तू भी मेरा अभिन्न अंग हैं, लोपा ! हो चूमने की विचारिक इसीलिए, तूने शिविकै इन दुशालोंको कभी नहीं ओढ़ा और काशीकै चन्दन तथा सागर के मौतियों से अपनेको कभी नहीं विभूषित किया । प्रिये, इनसे इतनी उदसीनता क्यों है ‘क्या मैं इनमें ज्यादा सुन्दर लगी है। ‘मेरे लिए तू सदा सुन्दर है। 'फिर इन बोझोंको लादकर शरीरको सोसत देनेसै लाभ क्या है सच कहती हैं, प्रिय, मुझे बड़ी बुरा लगता हैं, जब तू उस भारी बोझको अपने सरपर मुकुटके नामसे उठता है।

  • किन्तु दूसरी स्त्रियाँ जो वस्त्र-आभूषणके लिए मार करती हैं। 'मैं वैसी स्त्री नहीं हूँ। ‘दू पचाल-राजकै हृदयपर शासन करनेवाली स्त्री है। ‘प्रवाहणकी स्त्री हूँ. पंचालोंकी रानी नहीं ।