पृष्ठ:वोल्गा से गंगा.pdf/१२७

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१२६ चोलासे गंगा अरुणि-जैसे ब्राह्मणोंको भी भरमा रहा है, क्या यह प्रजाको भ्रममें रखने ही के लिए है। ‘लोपा, तू मुझे जानती है, तुझसे मैं क्या छिपा सकता हूँ । इस राज-भोगको हाथ में रखनेके लिए यह जरूरी है कि सन्देह पैदा करनेवालोंकी बुद्धिको कुंठितकर दिया जाये, क्योंकि हमारे वास्ते आज सबसे भयंकर शत्रु हैं देवताओं और उनकी यज्ञ-पूजाके प्रति सन्देह पैदा करनेवाले ।। किन्तु तु ब्रह्मकी सत्ता और उसके दर्शनकी बात भी तो करता है । ‘सत्ता है, तो दर्शन भी होना चाहिए । हाँ, इन्द्रियोंसे नहीं, क्योंकि इन्द्रियोंसे दर्शन होनेकी बात कहनेपर सन्देहवादी फिर उसे दिखलानेके लिए कहेंगे । इसलिए मैं कहता हूं किं उसके दर्शनके लिए दूसरी ही सूक्ष्म इन्द्रिय है, और उस इन्द्रियको पैदा करने के लिए मैं ऐसे-ऐसे साधन बतलाता हूँ कि लोग छप्पन पीढ़ी तक भटकते रहें और विश्वास भी न खो सके । मैने पुरोहितोंके स्थल हथियारको बेकार समझकर इस सूक्ष्म हथियारको निकाला है। तूने शबरोंके पास पत्थर और ताँबेके इथियार देखे हैं, लोपा है। 'हाँ, जब मैं तेरे साथ दक्षिणके जंगलों में गई थीं ।। "हाँ, यमुनाके उस पार । शवकै वह पत्थर और ताँवैके हथियार क्या हमारे कृष्ण-लौह ( असली लोहे ) के इन हथियारोंका मुकाबला कर सकते हैं? • 'इसी तरह वशिष्ठ और विश्वामित्रझै ये पुराने देवता और यज्ञ शबरों-जितनी बुद्धि रखनेवालों को ही सन्तुष्टकर सकते हैं, और समझ रखनेवाले इन सन्देइवादियोंकी तीक्ष्ण-बुद्धिके सामने वह कुछ नहीं हैं ।। ‘उनके सामने तो यह तेरा ब्रह्म भी कुछ नहीं है। तू ब्राह्मण