पृष्ठ:वोल्गा से गंगा.pdf/१२९

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१२ वोल्गासे गंगा यह सबसे भारी जाल है। 'और सबसे कार्यकारी भी । जिस परिमाणमे हम सामन्तों, ब्राह्मणों और बनियोंके पास अपार भोग-राशि एकत्रित होती गई है, उसी परिमाणमे साधारण प्रजा निर्धन होती गई। इन निर्धनों-शिल्पियों, कृषक और दास-दासियों-को भड़कानेवाले पैदा होने लगे हैं, जो कहते हैं-'तुम अपनी कमाई दूसरों को देकर कष्ट उठाते हो; वृह घौखेमें रखनेके लिए तुम्हें झूठे ही विश्वास दिलाते हैं कि तुम इसे कष्ट, त्याग, दान करने के लिए भरकर स्वर्ग में जाओगे | किसीने स्वर्ग में मृतजीवके उन भोगको देखा नहीं है। इसका जवाब है कि यह संसारमे जो नीच-ऊँचके भाव-छोटी-बड़ी जातियों, निर्धन-घनिक आदिके मैद-पाए जाते हैं, वह सब पहले जन्मकै कर्मों ही के कारण । हम इस प्रकार पहले के सुकर्म-दुष्कर्मका फल प्रत्यक्ष दिखलाते हैं।' ऐसे तो चोर भी अपने चोरीके मालको पूर्वजन्मकी कमाई कहे सकता है ? 'किन्तु उसके लिए हमने पहले ही से देवताओं, ऋषियो और जन-विश्वासकी सहायता प्राप्त कर ली है, जिसके कारण चोरीके धनको पूर्वजन्मकी कमाई नहीं माना जायगा । इस जन्म में परिश्रम बिना अर्जित धनको हम पहले देवताओंकी कृपासे प्राप्त बतलाते थे; किन्तु जब देवताओं और उनकी कृपापर सन्देह किया जाने लगा, तो हमें कोई दूसरा उपाय सोचना जरूरी था। ब्राह्मणोंमे यह सोचनेकी शक्ति नही रह गई है। पुराने ऋषियोंके मन्त्रों और वचनोंको रटनेमें ही वह चालीस-पैंतालीसकी आयु बिता देते हैं । वह दूसरी कोई गम्भीर बात कइसे सोच निकालेगे ।

  • किन्तु तूने भी तो, प्रवाहण, रटनेमें बहुत सा समय लगाया था ?
  • सिर्फ सोलह वर्ष। चौबीस वर्षकी उम्रके बाद मैं ब्राह्मणोंझी विद्याओंको पारकर बाहरके संसारमे आ गया था। यहाँ मुझे ज़्यादा