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वोल्गा से गंगा

तक षोड़शीको वह पचीस हाथ दूर घसीट लेगये थे। माँने देखा, चौबीसा पुरुष भी अधमरे भेड़ियेके पास दम तोड़ रहा है। अधमरे भेड़िएके मुँहमें किसीने डंडा डाल दिया, किसी ने उसके अगले दोनों पैर पकड़ लिये, फिर बाक़ीने मुँह लगाकर भेड़ियेके बहते हुए गरम-गरम नमकीन ख़ूनको पिया। माँने गलेकी नाड़ी काटकर उनके काम को और आसान बना दिया। यह सब काम चंद मिनटोंमें हुआ था, लोग जानते थे कि षोड़शी की तुक्का बोटी होनेके बादही भेड़िये हमपर आक्रमण करेंगे। उन्होंने मृतप्राय चौबीसे पुरुष को वहीं छोड़ तीन भालुओं और मरे भेड़ियोंको उठा दौड़ना शुरू किया और वे सही सलामत गुहामें पहुँच गये।

आग धायँ-धायँ जल रही थी, जिसकी लाल रोशनी में सभी बच्चे तथा दोनों तरुणियाँ सोरही थीं। दादीने आहट पाते ही काँपती किन्तु गम्भीर आवाजमें कहा—

"निशा—।–।! आगई!"

"हाँ" कहकर माँने पहले हथियारोंको एक ओर रख दिया, और वह चमड़े की पोशाक खोल दिगम्बरी बन गई। शिकारको रख उसी तरह बाक़ी सबने भी चर्म-परिधान को हटा आगके सुखमय उष्ण स्पर्श को रोम-रोम में व्याप्त होने दिया।

अब सारा सोया परिवार जाग उठा था। एक मामूली आहट पर जाग जाने के ये लोग बालपन से ही आदी होते हैं। बहुत सँभालकर ख़र्च करते हुए माँने परिवार का अब तक निर्वाह कराया था। हरिन, ख़रगोश, गाय, भेड़, बकरी, घोड़े के शिकार जाड़ा शुरू होने से पहले ही बन्द हो जाते हैं; क्योंकि उसी वक़्त वे दक्षिण के गरम प्रदेशकी ओर निकल जाते हैं। माँके परिवार को भी कुछ और दक्षिण जाना चाहिए था, किन्तु षोड़शी उसी वक़्त बीमार पड़ गई। उस समय के मानव-धर्मके अनुसार परिवार की स्वामिनी माँका कर्त्तव्य था कि एक के लिए सारे परिवारकी जानको ख़तरेमें न डाले। किन्तु, माँके दिलने कमजोरी