पृष्ठ:वोल्गा से गंगा.pdf/१३१

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वोल्लासे गंगा किन्तु मैंने अपने कामको योग्यतापूर्वक पूरा किया । प्रवाहण मर चुका था। उसके ब्रह्मवाद, उसके पुनर्जन्म या पितृयानवादी विजय-दुन्दुभी सिन्धुसे सदानीरा (गडक) के पार तक बज रही थी। यशोंका प्रचार अब भी कम नहीं हुआ था, क्योंकि ब्रह्मज्ञानी उन्हें करनेमे खास तौर से उत्साह प्रदर्शन करते थे। क्षत्रिय प्रवाहणके निकाले ब्रह्मवादमें ब्राह्मण बहुत दक्ष हो गए थे, और इसमे कुक्के याज्ञवल्क्यकी बड़ी ख्याति थी । कुरु-पाचालमें-जिसने किसी वक्त मन्त्रोंके कर्ता और यज्ञोके प्रतिष्ठाता वशिष्ठ, विश्वामित्र और भर४ाजको पैदा किया था-याज्ञवल्क्य और उसके साथी ब्रह्मवादियोंब्रह्मवादिनिथोकी धूम थी । ब्रह्मवादियों परिषद् रचानेमें यज्ञोंसे भी यादा नाम होता था। इसीलिए राजा राजसूय आदि यज्ञोके साथ या अलग ऐसी परिषदे कराते थे, जिनमें हजारों गाएँ, घोड़े और दासदासिथ ,दासी ख़ास तौरसे, क्योंकि राजाओंके अन्तःपुरमें पली दासियों को ब्रह्मवादी विशेष तौरसे पसन्द करते थे) वाद-विजेताको पुरस्कार मिलते थे । याज्ञवल्क्य ऋई परिषद में विजयी हो चुका था। अबकी बार उसने विदेह (तिहुँत) के जनकी परिषदमे भारी विजय प्राप्तकी, और उसके शिष्य सोमश्रवाने हजार गाएँ धैरी थीं। याज्ञवल्क्य विदेहसे कुरु तक उन गायको हककर लानेका कष्ट क्यों उठाने लगा ! उसने उनको वहीं ब्राह्मणोंमें बाँट दिया । ब्रह्मवादी याज्ञवल्क्यकी भारी ख्याति हुई । छ, हिरण्य (अश) सुवर्ण, दास-दासी और अश्वत (खचरी) रथको वह अपने साथ कई नामें भरकर कुरु-देश लाया। प्रवाहणको मरे साठ साल हो गए थे। उस वक्त याज्ञवल्क्य अभी पैदा भी नहीं हुआ था। किन्तु सौ वर्षसे ऊपर पहुँची लोया पंचालपुर (कन्नौज) के बाहरके रामथानमें अब भी रहती थी । उद्यानकै आम्रकदली-जम्बू वृक्षोंकी छायामें रहना वह बहुत पसन्द करती थी।