पृष्ठ:वोल्गा से गंगा.pdf/१३४

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प्रवाहण १३३ उसने यह कहकर प्रश्नको उत्तर माँगने मुझे रोक दिया-तेरा सिर गिर जायगा, गार्गी, यदि आगे प्रश्न किया तो ! 'तुझे आशा न थी, बेटी ! किन्तु मुझे सब आशा हो सकती थी। गार्गी, याज्ञवल्क्य प्रवाहणका पक्का शिष्य सिद्ध हुआ । प्रवाहणकै मिथ्यावादको इसने पूर्णताको पहुँचाया। अच्छा हुआ गार्गी जो तूने आगे प्रश्न नहीं किया। 'तुझे कैसे मालूम हुआ, बुआ ! 'इसीसे कि मैं अपनी आँखोंसे तेरे सिरको कन्धेपर देख रही हैं। 'तो क्या तुझे विश्वास है, बु, यदि मैं आगे प्रश्न करती, तो मेरा सिर गिर जाता है। ज़रूर ! किन्तु याज्ञवल्क्य ब्रह्म-बलसे नहीं, बल्लि वैसे ही, जैसे औरोके सिर गिरते देखे जाते हैं।' नहीं, बुआ 'तू बच्ची है, गार्गी ! तू जानती है कि यह ब्रह्मवाद सिर्फ मनकी उड़ान, मनकी कालाबाजी हैं। नहीं गार्गी, इसके पीछे राजाओं और ब्राह्मणोंका भारी स्वार्थ छिपा हुआ है। जिस क्षण यह ब्रह्मवाद पैदा हुआ था, उस समय इसका जन्मदाता मेरी बग़ल में सोता था। यह राज-सचा और ब्राह्मण-सत्ताको दृढ़ करनेका भारी साधन है-वैसे ही जैसे कृष्ण-लौह (लोहे )का खंग, जैसे उग्र लोहितपाणि भट । । 'बुआ, मैंने ऐसा नहीं समझा था । 'बहुत-से ऐसा नही समझते ! मै नहीं समझती | जनक वैदेह भी इस रहस्य (उपनिषद् ) को नहीं समझता होगा। किन्तु याज्ञवल्क्य समझता है वैसे ही, जैसे मेरा पति प्रवाहण समझता था। प्रवाहणको किसी देवता, देवलोक, पितृलोक, यक्ष और ब्रह्मवादमे विश्वास नहीं या। उसे विश्वास था सिर्फ भोगमे, और उसने अपने जीवनके एक-एक क्षणको उस भोगके लिए अर्पण किया। मरनेकै दिनसे तीन दिन पहले विश्वामित्र-कुलीन पुरोहितकी सुवर्णकेशी कन्या उसके निवासमै आई।