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९-बंधुल मल्ल

( ४९० ई० पू० )

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बसन्त का यौवन था। वृक्षों के पत्ते झड़कर नये हो गये थे। शाल अपने श्वेत पुष्पों से वन को सुगंधित कर रहा था। अभी सूर्य की किरणों के प्रखर होने में देर थी। गहन शाल वन में सूखे पत्तों पर मानवों के चलने की पद-ध्वनि आ रही थी। एक बड़े वल्मीक ( दीमक के टीले) के पास खड़े हुये दो तरुण तरुणी उसे निहार रहे थे। तरुणी के अरुण गौर मुख पर दीर्ध कुंचित नीलकेश बेपरवाही के साथ बिखरकर उसके सौंदर्य की वृद्धि कर रहे थे। तरुण ने अपनी सबल भुजा को तरुणी के कंधे पर रख कर कहा—
"मल्लिका इस वल्मीक को देखने में इतनी तन्मय क्यों है ?"
"देख, यह दो पोरिसाका है।”
"हाँ, साधारण वल्मीकों से बड़ा है, किन्तु इससे भी बड़े वल्मीक होते हैं। तुझे ख्याल आता होगा, क्या सचमुच वर्षा बरसने पर इससे आग और धुआँ निकलता है।
"नहीं, वह शायद झूठी दंतकथा है; किन्तु यह चींटी जैसे छोटे छोटे और उससे कहीं कोमल रक्तमुख श्वेत कीट कैसे इतने बड़े बल्मीक को बना लेते हैं?"
"मनुष्य के बनाये महलों को यदि उसके शरीर से नापा जाय, तो वह इसी तरह कई गुना बड़े मालूम होंगे। यह एक दीमक का काम नहीं है, शत-सहस्र दीमक ने मिलकर इसे बनाया है। मानव भी इसी तरह मिलकर अपने काम को करता है।
"इसलिये मैं भी उत्सुकतापूर्वक इसे देख रही थी, इनमें आपस में