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बधुल मल्ल

"किन्तु, मल्लिका ! मेरे साथ ईर्ष्या करनेवाले मेरे गुणोंको जानकर ही वैसा करते हैं। गुणी और सर्वप्रिय होना गणोंमें ईर्ष्याका भारी कारण है। मुझे मल्लिका ! अपने लिये ख्याल नहीं है, मुझे अफसोस इसी बातका है कि मैंने मल्लोंकी सेवाके लिए तक्षशिलामें उतने श्रमसे शस्त्र-विद्या सीखी। आज वैशालीके लिच्छवियोंको कोसल और मगध अपने बराबर मानते हैं किन्तु कुसीनारा कोसल राजको अपने ऊपर मानती है। मैंने सोचा था; हम पावा, अनूपिया, कुसीनारा आदि सभी नौ मल्ल-गणोंको स्नेह-बंधनमें बाँधकर लिच्छवियोंकी भाँति अपना नौ मल्लोके एक सम्मिलित सुदृढ़गण बनावेंगे। नौ मल्लोंके मिल जानेपर प्रसेनजित् हमारी तरफ़ आँखभी नहीं उठा सकता। बस यही एकमात्र अफसोस है।"

बधुलके गौर मुखकी कान्तिको फीकी पड़ी देख मल्लिकाको अफसोस होने लगा और उसने ध्यानको दूसरी ओर खींचते हुए कहा—
"तेरे साथी शिकारके लिए तैयार खड़े होंगे प्रिय ! और मैं भी चलना चाहती हूँ; घोड़ेपर या पैदल ?"
"गवय (घोड़रोज नील गाय)का शिकार घोडेकी पीठसे नहीं होता मल्लिका। और क्या इस घुट्टीतक लटकते अन्तरवासक (लुंगी) इस तीन हाथ तक लहराते उत्तरासग (चादर) और इन अस्त-व्यस्त केशोंको काली नागिनों की भाँति हवामें उडाते शिकार करने चलना है?"
"ये तुझे बुरे लगते हैं ?"
"बुरे !" मल्लिकाके लाल ओठोंको चूमकर "मल्लिका नामसे भी जिसका सम्बन्ध हो, वह मुझे बुरा नहीं लग सकता। किन्तु शिकार में जानेपर जंगलकी झाड़ियोंमें दौड़ना पड़ता है।"
'इन्हें तो मैं तेरे सामने समेटे लेती हूँ।' कह मल्लिकाने अन्तरवासकको कसकर बांध लिया, केशोंको सँभालकर शिरके ऊपर जुड़ा करके कहा-"मेरे उत्तरासंग ( ओढनी ) की पगड़ी बाँध दे, बधुल !"