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वोल्गासे गंगा

“पगड़ी बांध, बंधुलने कंचुकीके भीतरसे उसके उठे क्षुद्र-बिल्व-स्पर्धी स्तनोंको अर्धालिंगन करते हुये बोला-“और ये तेरे स्तन?"
"स्तन सभी मल्ल-कुमारियोंके होते हैं।"
"किन्तु, यह कितने सुन्दर हैं ?"
“तो क्या कोई इन्हें छीन ले जायेगा ?”
"तरुणोंकी नज़र लग जायेगी।"
"वह जानते हैं, यह बँधुलके हैं।"
"नहीं, तुझे उज्र न हो, तो मल्लिका ! भीतरसे मैं इन्हें अपने अंगोछेसे बाध दूँ।"
"कपड़ों के बाहरके दर्शन से तुझे तृप्ति नहीं हो रही है?" -मल्लकाने मुस्कुराकर बंधुलके मुहको चूमते हुये कहा।
बधुलने कचुकीको हटा शुभ्र स्फाटिक-शिला सदृश वक्षपर आसीन उन आरक्त गोल स्तनको अगोंछेसे बाध दिया। मल्लिकाने फिर कचुकी को पहनकर कहा—
"अब तो तेरा खतरा जाता रहा बंधुल।"
"बंधुलको अपनी चीज़के लिये खतरा नहीं है प्रिये ! अब दौड़नेमे यह ज्यादा हिलेंगे भी नहीं।”

सभी तरुण मल्ल-मल्लियाँ शिकारी वेशमें तैयार इस जोड़ेकी प्रतिक्षा कर रहे थे, और इनके आते ही धनुष, खङ्ग, भालेको संभाल चल पड़े। गवयोंके मध्यान्ह विश्रामका स्थान किसीको मालूम था। उसीके पथप्रदर्शनके अनुसार लोग चले। बड़े वृक्षों की अल्प-तृण-छायाके नीचे गवयोंका एक यूथ बैठा जुगालीकर रहा था, युथपति एक नील गवय, खड़ा कानोंको आगे पीछे तानते चौकी दे रहा था। मल्ल दो भागोंमें बंट गये–एक भाग तो अस्त्र-शस्त्र संभाल एक ओर वृक्षोंकी आड़ लेकर बैठ गया; दूसरा भाग पीछेसे घेरनेके लिए दो टुकड़ियोंमें बंटकर चला। हवा उधरसे आ रही थी, जिधर यह दोनों टुकड़ियाँ मिलने जा रही थीं। नील गवय अब भी अपनी हरिन जैसी छोटी दुमको हिला रहा