पृष्ठ:वोल्गा से गंगा.pdf/१५

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बोलगा से गगा भी न जाने कितने पतिकी अवस्था तक पहुँच सकते थे। मा छब्बीसैको पसद करती थी, इसलिए वाकी तीन तरुणियोंके लिए एक वह पचासा पुरुष ही बचा हुआ था । जाड़ा बीतते-बीतते दादी एक दिन सदाके लिए सोई पड़ी मिली। बच्चोंमसे तीनको भेड़िये ले गये और बड़ा पुरुष बर्फ पिघलनेपर उमड़ी नदीकै प्रवाहमें चला गया। इस प्रकार परिवार सोलहकी जगह नौका रह गया । वसन्तके दिन थे। चिरमृत प्रकृतिमे नवजीवनका सचार हो रही थी। छः महीनेसे सूखे भुर्ज-वृक्षों पर इसे पत्ते निकल रहे थे । बर्फ पिघली, धरती हरियालीसे हँकती जारही थी । इवाने वनस्पति और नई मिट्टीकी भीगी-भीगी मादक गध फैल रही थी । जीवन-हीन दिगन्त सजीव होरहा था ! कही वृक्षोंपर पक्षी नाना-भौतिके मधुर शब्द निकालरहे थे, कहीं झिल्ली अनवरत शोर मचा रही थी, कद्द हिम-द्रवित प्रवाहोंके किनारे बैठे हज़ारों जलपक्षी कृमि भक्षणमे लगे हुए थे, कहीं कलहस प्रणय-क्रीड़ा कर रहे थे। अब इन हरे पार्वत्य वनोंम कही कुण्डके झुण्ड इरिन कूदते हुए चरते दिखलाई पड़ते थे, कहीं भेटे, कहीं बकरियाँ, कहीं बारहसिगे, कहीं गायें और कहीं इनकी धातमें लगे हुए चीते दुवककर बैठे हुए थे, और कही भेड़िये ।। | जाड़े के लिए अवरुद्ध नदीके प्रवाहकी भाँति एक जगह रुक गये मानव-परिवार भी अब प्रवाहित होने लगे थे-अपने हथियारों, अपने चमड़ों तथा अपने बच्चोंको लादे गृह-अग्निको सँभाले अब खुली जगहोंम जारहे थे। दिन बीतनेके साथ पशु-वनस्पतियोकी भौति उनके भी शुष्क चर्म के नीचे मास और चवीके मोटे तर जमने जारहे थे । कभी उनके लचे कैशवाले बड़े-बड़े कुत्ते भेड़ या बकरी पकड़ते, कभी वे स्वय जाल, वाण या लकड़ीके भालेसे क्रिसी जन्तु