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बंधुल मल्ल


आग लग गई किन्तु उसने उस वक्त अपने ऊपर इतना काबू किया कि आँखोमें आँसू क्या मुंहको म्लान तक नहीं होने दिया। चिट्ठीको आँचरके कोनेमें बाँध उसने सारे संघको भोजन कराया। भोजनोपरान्त बुद्धके उपदेशको श्रद्धासे सुना, तब अन्तमें चिट्ठीको पढ़ सुनाया। बैधुल परिवार पर बिजली गिर गई।मल्लिकामें काफ़ी धैर्य था, किन्तु उन तरुण विधवाओंको धैर्य दिलाना बुद्धके लिये भी मुश्किल था।

समय बीतने पर प्रसेनजितको सच्ची बातें मालूम हुई, उसे बहुत शोक हुआ, किन्तु अब क्या हो सकता था। प्रसेनजित्ने अपने मनको सान्त्वना लिए बंधुल भागिनेय दीर्घ कारायणको अपना सेनापति बनाया।

( ६ )

जाडोंका दिन था, कपिलवस्तुके आस-पासके खेतोंमें हरे भरे गेहूँ, जौ, तथा फूली हुई पीली सरसों लगी थी। आज नगरको खूब अलंकृत किया गया था, जगह जगह तोरण-वंदनवार लगे थे। संस्थागार (प्रजातन्त्र-भवन) को खास तौरसे सजाया गया था। तीन दिनकी भारी मेहनतके बाद आज ज़रा-सा अवकाश पा कुछ दास किसी घरके एक कोनेमें बैठे हुए थे। काकने कहा—
"हम दासोंका भी कोई जीवन है ! आदमीकी जगह यदि बैल पैदा हुये होते, तो अच्छा था; उस वक्त हमें मनुष्य जैसा ज्ञान तो न होता।
"ठीक कहते हो काक ! कल मेरे मालिक दंडपाणिने लाल लोहा करके मेरी स्त्रीको दाग दिया।
"क्यों दागा"
"क्यों इनसे कौन पूछे। यह तो दासोंके पति-पत्नीकै सम्बन्धको भी नहीं मानते। तिस पर यह दंडपाणि अपनेको निगंठ श्रावक (जैन) कहता है-जो निगंठ कि भूमिके कीड़ेको हटानेके लिये अपने पास मोरपंखी रखते हैं। क़सूर यही था कि मेरी स्त्री कई दिनसे सख्त बीमार हमारी बच्चीकी बेहोशीकी बात मुझसे कहने आई थी। बेचारी बच्ची