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१०—नागदत्त

काल—३३५ ई० पू०

( १ )


“उचित पर हमें ध्यान देना चाहिये, विष्णुगुप्त ! मनुष्य होनेसे हमारे कुछ कर्त्तव्य हैं, इसलिये हमें उचितका ख्याल रखना चाहिये।”
कर्तव्य है धर्म न ?"
"मैं धर्मको ढोंग समझता हूँ। धर्म केवल परधन-अपहारकोंको शान्तिस्से परधन उपभोग करनेका अवसर देनेके लिये है। धर्मने कभी गरीबों और निर्बलोंकी क्या सुधि ली। विश्वकी कोई जाति नहीं है, जो धर्मको न मानती हो, किन्तु क्या कभी उसने ख्याल किया कि दास भी मनुष्य हैं। दासों को छोड़ दो, अदास स्त्रियोंको ले लो, धर्मने कभी उनपर न्याय किया ? धन चाहिए, तुम दो, चार, दस, सौ स्त्रियोंको विवाहिता बना सकते हो। वह दासीसे बढ़कर नहीं होंगी, और धर्म इसे ठीक समझता है। मेरा उचितका मतलब धर्मसे उचित नहीं है, बल्कि स्वस्थमानवका मन जिसे उचित समझता है।
"तो मैं कहता हूँ, जो आवश्यक है वही उचित है।"
"तब तो उचित अनुचितका भेद ही नहीं रह जायेगा।"
"भेद रहेगा मित्र! आवश्यकसे मतलब मैं सिर्फ एकके लिये जो आवश्यक हो, उसे नहीं लेता।"
"जरा साफ करके कह विष्णुगुप्त !"
"यही हमारे तक्षशिला-गंधारको ले ले भाई ! हमारे लिये अपनी स्वतंत्रता कितनी प्रिय और उचित भी है; किन्तु हमारा देश इतना छोटा है, कि वह बड़े शत्रुका मुकाबिला नहीं कर सकता। जब तक मद्र, पश्चिम गंधार जैसे छोटे-छोटे गण हमारे पड़ोसी थे, तब तक चैनसे