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नागदत्त


इसीलिये हमें सारे उत्तरापथ ( पंजाब) के गणोंका एक संघ संगठित करना चाहिये।"
"उस संघमे, प्रत्येक गण स्वतंत्र रहेगा, या संघ सर्वोपरि रहेगा?"
"मै समझता हूँ जैसे हम सब व्यक्तियोंके ऊपर गण है, उसी तरह गंधार, मद्र, मल्ल, शिवि आदि सभी गणोंके ऊपर संघको मानना होगा।"
"इसे कैसे मनवायेंगे ? आखिर गणके बाहरी शत्रुओंकी रक्षा लिये हमे सेना रखनी होगी। बलि (कर) लेनी होगी।"
"जैसे हम गणके भीतर लोगोंसे कराते हैं वैसे संघके भीतर गणोंसे करा सकते हैं।"
"गणके भीतर हमारा पहलेसे चला आया एक जन एक खूनका परिवार है, अनादिकालसे इस परिवारको गण-नियमके माननेकी आदत बन गई है; किन्तु यह गणोका संघ नई चीज होगा, यहाँ खूनका संबध नही बल्कि खूनका झगड़ा प्रतिद्वद्विता अनादिकालसे चली आई है, फिर कैसे हम संघके नियमको मनवा सकते हैं ? यदि मित्र ! तू इसपर व्यापारकी दृष्टि से विचारता, तो कभी इसके लिये न कहता। संघकी बात गण तभी मानेंगे, जबकि उन्हें वैसा माननेके लिये मज़बूर किया जायेगा। और वह मजबूर करनेवाली शक्ति कहाँ से आयेगी ?"
"मैं समझता हूँ उसे भीतरसे पैदा करनी चाहिये।”
"मैं कहता हूँ भीतरसे पैदा होती तो अच्छी बात है, किन्तु पार्शवके प्रहारको अनेक बार सहकर हमने देख लिया कि वह भीतरसे नहीं पैदाकी जा सकती, इसीलिये हमें जैसे हों वैसे उसे पैदा करना चाहिये।"
"राजा स्वीकार कर भी ?"
"सिर्फ तक्षशिलाका नहीं, तक्षशिला-गंधार जैसे अनेक जनपदोंका एक राजा-चक्रवर्ती–भी स्वीकार करना हो, तो हर्ज नहीं ।"
"तो फिर पार्शव दारयोशको ही क्यों न राजा मान ले।"