पृष्ठ:वोल्गा से गंगा.pdf/१५९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१५८
वोल्गासे गंगा

“पार्शव दारयोश् हमारा नहीं है, मित्र ! यह है खुद जानता है—
हम जम्बूद्वीपके हैं।"
"अच्छा, तो नन्दको ।"
"यदि हम उत्तरापथ ( पंजाब ) के सारे गणोंका संघ नहीं बना सकते, तो हमें नन्दको स्वीकार करनेमें भी उज्र नहीं होना चाहिये। पश्चिमी गंधारकी भाँति दारयोश् का दास बनना अच्छा है, या अपने एक जम्बू द्वीपीय चक्रवर्तीके आधीन रहना अच्छा है।"
"तूने मित्र विष्णुगुप्त ! राजाका राज्य अभी देखा नहीं है, देखता तो समझता, कि वहाँ साधारण जन दाससे बढ़कर हैसियत नहीं रखते ।"
"मैं मानता हूँ, मैंने पश्चिमी गंधार छोड़ किसी राजाके राज्यमें पैर नहीं रखा, किन्तु देश-भ्रमणकी इच्छा मेरे दिलमें है। मैं तेरी तरह बीच बीचमें चक्कर काटनेकी जगह अध्ययन समाप्तकर एक ही बार उसे करना चाहता हूँ। किन्तु, इससे मेरे इस विचारमें कोई अन्तर नहीं आ सकता, कि हमें यदि विदेशियोंकी घृणित दासतासे बचना है, तो छोटी सीमाओंको तोड़ना होगा। कौरोश् और दारयोश् की सफलताकी यही कुंजी है।
"उन्हें कितनी सफलता मिली, इसे मैं नजदीकसे देखना चाहता हूँ—"
"नजदीकसे !"
“हाँ, मैंने प्राचीमें मगध तक देख लिया, और देख लिया। नन्दका राज्य हमारे पूर्व गंधार (तक्षशिला) की तुलनामें नर्क है, मज़बूत वह ज़रूर है गरीबोंको पीस देनेके लिये, किन्तु मेहनत करने वाले लोग— कृषक, शिल्पी, दास-कितने पीड़ित हैं, इसे बयान नहीं कर सकता।”
"यह इसीलिये, कि नन्दके राज्यमें तक्षशिला जैसा कोई स्वाभिमानी स्वतंत्रताप्रेमी गण नहीं सम्मिलित हुआ।”
"सम्मिलित हुआ है विष्णुगुप्त ! लिच्छवियोंका गण हमारे गंधारसे भी जबर्दस्त था, किन्तु आज वैशाली मगधकी चरणदासी है, और