पृष्ठ:वोल्गा से गंगा.pdf/१६१

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१६० वोल्गासे गंगा अधिक बार पार्शवोके हाथमें चली गई तक्षशिलाकी स्वतंत्रताको बचाने लिये दोनों अपने अपने विचारकै अनुसार कोई रास्ता देंढ़ रहे थे। चारों ओर छोटे छोटे नौ-वृक्ष वनस्पति-शून्य–पहाड़ थे, वहाँ इरियाली देखनेको अखें तरस रही थीं। पहाड़ोंके बीचमें विस्तृत उपत्यका, जिसमें भी जल और वनस्पतिको चिह शायद ही कहीं दिखाई पड़ता हो। इसी उपत्यकाके किनारे किनारे कारवाँका रास्ता था, जिसपर सदा लोग आते जाते रहते थे, और कार और उनके पशुओं आरामके लिये पान्थशालायें ( सराथे ) बनी हुई थीं, आस पासके मृखंडके देखनेसे आशा नहीं होती, किन्तु इन पान्थशालाओंमें हर तरहका आराम है। न जाने कहाँसे इतनी चीजें इस मरुभूमिमें प्रकट हो जाती थीं। पड़ावोंम पान्थशालायें एकसे अधिक थीं, जिनमें कुछ साधारण राज कर्मचारियों और सैनिकों के लिये थीं, कुछ व्यापारियोके लिये और कमसे कम एक तो राजाका पान्थ-प्रासाद होता था, जिसमें शाह और उनके क्षत्रप विश्राम करते थे। आज इस पड़ावके पान्थप्रासादमें कोई ठहरा हुआ था, उसकी अस्तबल में घोड़े बँधे थे, आँगनमे बहुतसे दासकर्मचर दिखलाई पड़ते थे; किन्तु, सबके चेहरेपर उदासी थी। इतने आदमियोंके होनेपर भी पान्थ-प्रासादमें ग़ज़बकी नीरवता छाई हुई थी । इसी समय फाटकसे उद्विग्नमुख तीन राजकर्मचारी निकले, और वह साधारण पान्यशालाओं में घुस गये। उनके बहुमूल्य वस्त्रों, रोवले मुखको देखते ही लोग भय और सम्मानके साथ एक ओर खड़े हो जाते । वह पूछ रहे थे, कि वहाँ कोई वैद्य है । अन्तम साधारण जनकी पान्थशालामे पता लगा, कि उसमें एक हिन्दू वैद्य ठहरा हुआ है। वप उस भूमिमें बहुत कम होती हैं, और उसकी ऋतु अबकी बीत चुकी थी। सेव, अंगूर, खर्बजे जैसे फूल अपने सस्तेपन के कारण इस पाथशालोम विक रहे थे । राजकर्मचारी जव वैद्यके सामने पहुँचा, तो