पृष्ठ:वोल्गा से गंगा.pdf/१६३

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१६९ वोलगा गंगा | ' कहनेको यह पान्थशाला थी, किन्तु इसके आँगनमे गदहॉकी न वह लीद थी, न भिखमंगोंकी गुदड़ियोंकी जूयें ।' यहाँ सभी जगह सफाई थी। ऊपर चढ़नेकी सीढीपर रंगबिरंगे काम वाले कालीन बिछे हुए थे, सौढीकी बाहोंने सुन्दर कारुकार्य थे । घरों में भी उसी तरह नीचे महाई कालीन थे, दर्वान्नोंपर सूक्ष्म स्कुलके पर्दै लटक रहे थे, जिनके पास संगमर्मरकी मूर्तिकी भाँति नीरव सुंदरियाँ खड़ी थीं । एक द्वारपर जाकर कर्मचारीने वैद्यको खड़ा रहनेका इशारा किया, और एक सुंदरीके कानों में कुछ कहा। उसने बहुत धीरेसे द्वारको खोला, भीतर के पर्दे के कारण वहाँ कुछ दिखलाई न पड़ता था। कुछ क्षण में ही सुंदरी लौट आई, और उसने वैद्यको अपने साथ चलने को कहा। भीतर घुसते ही वैद्यनै मधुर सुगंधसे सारे कमरेको वासित पाया, फिर जल्दीमे आसपास नजर दौड़ाई, तो उस कमरेके सजानेमें कमाल किया गया था। कालीन, पर्दै, मसनद, दीपदान, चित्र, मूर्तियां सभी ऐसी थीं, जिन्हें वैद्यने अभी तक न देखा था। सामने एक कोमल गद्दी थी, जिसपर दीवार के पास दो तीन मसनदे रखी थीं, जिनमें से एकके सहारे एक अधेड़ उम्रका कुछ स्थूलकाय पुरुष बैठा था। उसकी कान तक फैली बड़ी बड़ी मूछोंके भूरे बालोंमें कुछ सफेद हो चले थे। उसकी बड़ी पीली आँखोंपर अति जागरण और तीव्र चिन्ताकी छाप थी। उसकी बगलमें एक अनुपम सुंदरी बैठी थी, जिसका वणं ही श्वेत मक्खन सा नहीं था, बल्कि मालूम होता था, वह उससे अधिक कोमल है, उसके श्वेत कपोलों पर हल्की सी लाली थी, जो अबसे धूमिल हो गई थी । उसके पतले ओठोकी चमकती लालीको शुक चंचुसे उपमा नहीं दी जा सकती । उसकी पतली धनुषाकार भौंहोंमें मृदु पीत रोम थे, और नीचे कानोंके पास तक चले गये दीर्घपक्ष्म वाले नील नेत्र, जो सूजे और आरसे थे। उसके शिर पर मानों सुवर्णके सूक्ष्म तंतुओंको बलित करके सजाया गया था। उसके शरीर में एक पूरे बाँकी हरित दुकूलकी कंचुकी, और नीचे लाल दुकूलका सुत्थन था। उस सौन्दर्यमय