पृष्ठ:वोल्गा से गंगा.pdf/१६७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

वोल्गासे गंगा “महाक्षत्रपानीको अव कोई चिन्ता न करें। वैद्यनै बीमारीको ठीकसे पहिचाना नहीं था। मैं दो घंटा और न आया होता, तो फिर आशा ने थी । किन्तु अब उनकी बीमारी चली गईं समझे ।। छत्रपके आग्रहपर वैद्यनें वह एक कमरे में रहना स्वीकार किया। क्षत्रपानी चौथे दिनसे बैठने लगीं, और उनके चेहरेकी सिकुड़नें बड़ी तेजीसे मिटने लगीं । सबसे ज्यादा प्रसन्न थी रोशना । दूसरे ही दिन उसने क्षत्रपके दिये महाचं दुशालेके चोगेको लाकर अपने हाथों वैद्यको प्रदान किया । इस चोगे, इस सुनहले कमरबंद, इस स्वर्णखचित जूतोंके साथ अब वह भिखमंगोंमें बैठ खर्बुजा खानेवाला आदमी न था। क्षत्रपानी अब हल्का आहार ग्रहण करने लगी थीं। छठे दिन शामको उन्होंने वैद्यको बुला मैजा) वैद्य उन्हें बिल्कुल नया पुरुष मालूम होता था, जान पड़ा उनके भतीजों में से कोई आ रहा है। पास आने पर बैठनेके लिये कहा, और बैठ जानेपर बोलीं--- "वैद्य | मै तुम्हारी बड़ी कृतज्ञ हैं। इस निर्जन बयाबानमै मज्दानै तुम्हें मुझे बचानेके लिये मैना । तुम्हारा जन्मनगर क्या है ? तक्षशिला । । तक्षशिला ! बहुत प्रसिद्ध नगर है, विद्याकी ख्याति है तुम उसके रत्र हो । नहीं, मैं उसका एक अति साधारण नया वैद्य हूँ।" "तुम तरुण हो निस्सन्देह, किन्तु तरुणाई और गुणसे बैर नहीं है। तुम्हारा नाम क्या है, वैद्यराज १ . नागदत्त काप्य ।। “पूरा नाम बोलना मेरे लिये मुश्किल होगा, नागे कहना काफी होगा १५ क्राफी होगा, महाक्षत्रपानी ! तुम कहाँ जा रहे हों ? अभी तो पशुपुरी ( पर्सेपोलीस ) ।”