पृष्ठ:वोल्गा से गंगा.pdf/१६८

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। नागदत ३७ चलने, यात्रा करनेकी इच्छासे ही मैंने घर छोड़ा है। “हम भी पर्शपुरी जा रहे हैं, तुम हमारे साथ चलो। हम तुम्हारा हर तरहसे ख्याल रखेंगे। रोशना ! तू वैद्यराजके आरामका खुद ख्याल कियाकर, दास बेपर्वाही करेंगे।" “नहीं, माँ ! मैं खुद देखती रहती हैं, मैंने सोफियाको इस काममें लगा दिया है।" सोफिया यवनी ( यूनानी ) जिसे मेरे भाईने यह मेरे लिये मैजा था ? “हाँ, माँ ! तुम्हारा तो कोई काम न था, और लड़की बहुत होशियार मालूम होती है, इसलिये मैंने उसे ही लगा दिया है।" “तो वैद्यराज ! हमारे साथ पर्शपुरी चलना होगा, मैं तुम्हारी इच्छाके प्रतिकूल कुछ न करूंगी, किन्तु मैं चाहूंगी तुम हमारे परिवार के वैद्य रहो ।” नागदत्त कुछ देर बैठकर अपने कमरे में चला आया। संसारके इतने विशाल राज्यको राजधानी इन नंगे, वृक्ष-वनस्पतिहीन पहाड़ोंमें, इतनी प्राकृतिक दरिद्रताके साथ रोगी, नागदत्तको इसका ख्याल भी न था | पर्शपुरी महानगरी थी। राजप्रासादके विशाल चमकते पाषाण-स्तम्भों, उसके गगनचुंबी शिखरों को बाहर से देखने र भी शाहशाही वैभवका पता लगता था, नगरकी समृद्धि भी उसीके अनुरूप यी; किन्तु, यह सब मनुष्यके हाथोंका निर्माण था । प्रकृतिनै अपनी ओरसे सचमुच ही उसे अत्यंत दरिद्र बनाया था। | पर्शपुरी और शाहंशाहके वैभवको देखने के लिए शाहंशाहकी बहिन अफ्शाके आश्रयसे बढ़कर अच्छा अवसर नहीं मिल सकता था। क्षत्रपानीने पशुपुरी पहुँचकर नागदत्तके आरामका बहुत ध्यान रखा, और जब उसने दक्षिणके लिये जोर दिया तो वैद्यनै सोफियाको माँग