पृष्ठ:वोल्गा से गंगा.pdf/१७३

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बोलाले गंगा मैंने विष्णुगुप्तो कहा था, गनें कितनाही धन क्रिडा क्यों न बढ़े, किन्तु वह राजाओंकी भाँति पानीकी तरह नहीं बहाया जा सकता। यह तो तुम देख ही रही हो तोकी महाई मृगर्न, दु, मणि, झुका आदि वस्तुओं के साथ किस तरहका व्यवहार किया जाता है। चै उजाबी गाल, चै प्रचाली अधर यह ख्याल भी नहीं है, कि इन वस्तुओंको पैदा करनेके लिए कितने करोड़ों अरोड़ आदमी भूलें। मर रहे हैं । | "इमारे घरोंपर गिरे पानीको छीनकर सनुद्रको महान् जलराशि मिली है।

  • मिट्टीचे सोना पैदा झरनेवाले भूखे-नंगै मरते हैं और सोनेको मिट्टी करनेवाले मौज उड़ाते हैं। मैं तीन बार शाहंशाहकै सासने गया, हर बार लौटते वक्त मेरे सिर में दर्द होने लगा। मैंने उसके सारे वैभव से जोड़ोंमें ठिठुरकर, गर्मियोंमें जलकर मरनेवाले कमी आह निकलती देखी, उसकी लाल मदिरा बुझे सताई गई प्रजा लून

रूपमें दिखलाई पड़ी। मैं पशु पुरीले तंग आ गया हैं, और जल्दी निकल भागना चाहता हूँ।

    • कहाँ जाना चाहते हो नाग ! “पहिले तुम्हारे वारेमें जानना चाहता हूँ । *मैं कहाँ वतला सकती हूँ ।”

बबन लौक (यूनान) **पसद होगा ।। तो इधर ही चलेंगे । किन्तु, रास्वेमें मुझे फिर कोई छीन लेगा, और अबक्री बार नाग जैसा त्राता नहीं प्राप्तझर सकेंगी।—सोफियाका त्वर असाधारण कोमल हो गया था, उसके सुन्दर आत नयन कातरले दीख पड़ रहे थे। नागदत्तने उसके ज्ञानके ऊपर लटकते सुनहले वालोंको छुर्वे हुए कहा---