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वोल्गा से गंगा

साकेतवासी वसन्तोत्सव मनाया करते थे। तैराकीमें तरुण-तुरुणी दोनों भाग लेते थे और नंगे बदन एक घाटपर। तरुणियोंमे कितनी ही कर्पूरश्वेत यवनियाँ (यूनानी स्त्रियाँ) थीं, जिनका सुन्दर शरीर यवन चित्रकार-निर्मित अनुपम मर्मरमूर्ति-जैसा था, जिसके ऊपर उनके पिंगल या पाण्डुर केश बड़े सुन्दर मालूम होते थे। कितनी ही नील या पीत केशधारिणी सुवर्णाक्षी ब्राह्मण-कुमारियाँ थीं, जो सौन्दर्यमें यवनियोंसे पीछे न थीं। कितनी ही घनकृष्णकेशी गोधूमवर्ण वैश्य-तरुणियाँ थीं, जिनका अचिरस्थायी मादक तारुण्य कम आकर्षक न था। आज सरयूतटपर साकेतके कोने-कोनेकी कौमार्य रूपराशि एकत्रित हुई थी। तरुणियोंकी भाँति नाना कुलोंके तरुण भी वस्त्रोंको उतार नदीमें कूदनेके लिए तैयार थे। उनके व्यायाम-पुष्ट, परिमंडल सुन्दर शरीर कर्परसे गोधूम तकके वर्णवाले थे। उनके केश, मुख, नाकपर ख़ास-खास कुलोंकी छाप थी। आजके तैराकी-महोत्सवसे बढ़कर अच्छा अवसर किसी तरुण-तरुणीको सौन्दर्य परखनेका नहीं मिल सकता था। हर साल इस अवसरपर कितने ही स्वयंवर सम्पन्न होते थे। माँ-बाप तरुणोंको इसके लिए उत्साहित करते थे। उस वक्तका यह शिष्टाचार था।

नावपर सरयू-पार जा तैराक तरुण-तरुणियाँ जलमें कूद पड़े। सरयूके नीले जलमें कोई अपने सुवर्ण, पाण्डु, रजत या रक्त दीर्घ कचोंको प्रदर्शित करते और कोई अपने नीले-काले केशोंको नील जलमें एक करते दोनों भुजाओंसे जलको फाड़ते आगे बढ़ रहे थे। उनके पास कितनी ही क्षुद्र नौकाएँ चल रही थीं, जिनके आरोही तरुणातरुणियोंको प्रोत्साहन देते तथा थक जानेपर उग लेते, थे-हजारों प्रतिस्पर्दियों में कुछका हार स्वीकार करना सम्भव था। सभी तैराक शीघ्र आगे बढ़ने के लिए पूरी चेष्ठाकर रहे थे। जब तुट एक-तिहाई दूर रह गया, तो बहुत-से तैराक शिथिल पड़ने लगे। उस वक्त पीछेसे लपकते हुए कैशोंमें एक पिंगल था और दूसरा पाण्डुश्वेत् । तटके समीप आनेके साथ उनकी गति और तीव्र हो रही थी। नाक्पर चलने