पृष्ठ:वोल्गा से गंगा.pdf/१९१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

बोल्गासे गंगा *तुमने अपने गानसे रुलाया था। 'तुमने अपने वियोगसे वह गीत प्रदान किया था । 'किन्तु, तुम्हारे गीतकी उर्वशी कोई पाषाणी थी, कवि ! कमसे कम तुमने उसे वैसा ही चित्रित किया था। 'क्योंकि मैं व्याकुल और निराश था । क्या समझकर है। मैं उस अचिरप्रभा (बिजली)के दशनका सौभाग्य ने प्राप्तकर सर्केगा । वह कबकी मुझे भूल गई होगी । “तुम इतने अकिंचन थे, कवि ” । 'जब तक आत्म-विश्वासका कोई कारण न हो, तब तक आदमी अकिंचन छोड़ अपनेको और समझ सकता है । तुम साकेत ही नहीं, हमारे इस विस्तृत भूखंडके महिमा-प्राप्त कवि हो। तुम साकेतके सरिता-तरुणके विजेता हो। तुम्हारी विद्याकी प्रशंसा इर साकेतवासीकी जिह्वापर है । और नारीकी दृष्टिसे देखो, सो साकेतकी सुन्दरियाँ तुम्हें अपनी आँखोंका तारा बनाकर रखनेको तैयार हैं। किन्तु, इससे क्या है मेरे लिए तो अपनी उर्वशी सब-कुछ थी। मैंने जब दो सप्ताह उसे नहीं देखा, तो जीवन निस्सार मालूम होने लगा | सच कहता हूं प्रभा, मैंने अपने चित्तको कभी इतना निर्बल न पाया था। यदि एक सप्ताह और न तुम्हें देख पाया होता, तो नजाने क्या कर डालता ।। कवि, तुम इतने स्वार्थी न बनो । तुम अपने देशके शाश्वत गायक हो। तुमसे अभी वह क्या-क्या आशा रखता है। तुम्हारे इस "उर्वशी-वियोग” नाटकको जानते हो, कितना बखान हो रहा है । मैंने नहीं सुना । *पिछले सप्ताह मेरे बन्धु एक यवन व्यापारी भरुकन्छ (भौंच) से यहाँ आए थे। भरकच्छमें यवन नागरोंकी भारी संख्या रहती है।