पृष्ठ:वोल्गा से गंगा.pdf/१९२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

प्रभा १६१. हमारे साकेतके यवन (यूनानी) तो हिन्दू हो गए हैं, किन्तु भरुकच्छवाले अपनी भाषाको भूले नहीं हैं। भरुकच्छ में यवन देशसे व्यापारी और विद्वान् आया करते हैं। हमारे यह बन्धु यवन-साहित्यके बड़े मर्मज्ञ हैं। उन्होंने तुम्हारे नाटककी उपमा एम्पीदोकल और युरोपिंदु –श्रेष्ठ यवन-नाटककारी-की कृतियोंसे दी। वह इसे उतरवाकर ते गए हैं । कहते थे-मितका राजा तुरमाय (तालिमी) बङ्गा नाट्य-प्रेम है, उसके पास यवन भाषान्तर कर इसे मैजेंगे । भरुकच्छसे मिसको बराबर जलपोत आया-जाया करते हैं। जिस वक्त मैं उनके वार्तालाप को सुन रही थी, उस वक्त मेरा हृदय अभिमानसे फूल उठा था।' 'मेरे लिए तुम्हारे हृदयका अभिमानही सब-कुछ है, प्रभा ! कवि, तुम अपना मूल्य नहीं जानते। 'मेरे मूल्यकी कसौटी तुम थीं, प्रभा ! अब मैं उसे जानता हूँ। 'नहीं, तुम्हें ऐस नहीं करना चाहिए ! तुम्हें प्रभाके प्रेमी अश्वघोष और युगके महान् कवि अवधौषको अलग-अलग रखना होगा। प्रभाके प्रेमी अश्वघोषको चाहे जो कुछ कहो-करो; किन्तु महान् कविको उससे ऊपर, सारी बसुन्धराका समझना होगा ।।। ‘तुम जैसा कहोगी, इस बातमें मैं तुम्हारा अनुसरण करूंगा। मैंने अपनेको इतनी सौभाग्यशालिनी होनेकी कभी आश न की थी। ‘सोचती थी, तुम मुझे भूल चुके होगे ।' तुम इतनी साधारण थीं। तुम्हारे सामने थी और अब भी हूँ। 'तुमसे मुझे कविताका नया वर मिला है। मैं अपनी कविताओंमें अब नई प्रेरणा, नई स्फूर्ति पाता हूँ। "उर्वशी-वियोग” गीत तुम्हारी प्रेरणासे प्रकट हुआ और यह नाटक भी। नाटकको मैं देशकी अपनी चीज़ बना रहा हूँ, प्रभा ! किन्तु तुमने कैसे समझा कि मैं तुम्हें भूल जाऊँगा ?