पृष्ठ:वोल्गा से गंगा.pdf/१९३

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वोल्गांसे गंगा 'कहीं से भी मैं अपनेकी तुम्हारे पास पहुँचने लायक नहीं पाती थी। 'एक-एककर जब मैं तुम्हारे गुणोंसे पूर्णतथा परिचित हो गई, तो उससे निराश ही होती गई। साकेतकी एक-से-एक सुन्दरियोंको मैने तुम्हारे नाम पर बावली होते देखा, इससे भी अशा नहीं हो सकती थी। फिर सुना, तुम उच्च कुलके ब्राह्मण हो । यद्यपि मैं ब्राणों के बाद उच्च स्थान रखने वाले राजपुत्र यवनकी कन्या हूँ, तो भी कुलीन ब्राह्मणजो मातापिताकी सात पीढ़ियों तककी छानबीन किए बिना ब्याई नहीं करता-- कैसे मेरे प्रेमका स्वागत करेगा ?? । | मुझे खेद है प्रभा, जो अश्वघोषने तुम्हारे चित्तको इस तरह दुखाया । 'तो तुम प्रभा- कहते-कहते वह रुक गई। अश्वघोषने प्रभाके वाष्पपूर्ण नेत्रोंको चूम, कण्ठसे लगाकर कहा--- प्रमा, अश्वघोष सदा तुम्हारा रहेगा। काल भी तुम्हें उससे पराई नहीं वना सकता है। प्रभाके नेत्रोंसे छलछले आँसू बह रहे थे और अश्वघोष कण्ठसे लगाए उसके आँसुको पोंछ रहा था। ‘उर्वशी-वियोग' बहुत अच्छा खेला गया और एकसे अधिक बार। साकेतके सभी सम्भ्रान्त नागरिकोंने उसे देखा । उन्हें कभी ख़याल भी न था कि अभिनयकी कला इतनी पूर्ण, इतनी उच्च हो सकती है। अश्वघोषने अन्तिम यवनिकापातके समय कई बार दोहराया था कि मैंने सब कुछ यवन-रंगमचसे लिया है, किन्तु उसके नाटक इतने स्वभूमिज थे कि कोई उनपर किसी प्रकार के विदेशी प्रभावकी गन्ध भी नहीं पाता था। जिस तरह अश्वघोषके सस्कृत-प्राकृत गीत और कविताएँ साकेत और कौसलकी सीमा पार कर गए थे, नसके नाटक उससे भी दूर तक । फैल गए। उर्जयिनी, दर्शपुर, सुप्मारक, भरुकच्छ, शाकला १ त्यांलकोट ), तक्षशिला, पाटलिपुत्र जैसे महानगरोंमें-जह कि यवनोंकी काफी संख्या और उनकी नाट्यशालाएँ थीं-उसके नाटक रंगमंचफ्र