पृष्ठ:वोल्गा से गंगा.pdf/१९५

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१६४ बोल्लासै गरी अश्वघोषके लिए प्रभाका त्याग अचिन्तनीय था। ब्राह्मणने फिर प्रभाके माता-पितासे अनुनय-विनय की; किन्तु वह असमर्थ थे। अन्तमे उसने प्रभाके सामने पगड़ी रखी। प्रभाने इतना ही कहा कि मैं अश्वघोषसे आपकी बात कहूँगी ।। प्रभा और अश्वघोष अभिन्न सहचर थे । चाहे सरयू-तीर हो, चाहे पुष्पोद्यान, यात्रोत्सव, नृत्यशाला, नाट्यशाला था दूसरी जगह, एकके होनेपर दूसरेका वहाँ रहना जरूरी था। प्रभा सूर्य-प्रभाकी भाँति अश्वघोषके हृदय-पद्मको विकसित रखती थी। दुष-सी छिटकी चाँदनीके प्रकाशमें दोनो अकसर सरयूकी रेतमे जाते और प्रणय-लीलामे ही अपना समय नहीं बिताते थे, बल्कि वहाँ कितनी ही बार जीवनकी दूसरी गम्भीर बाते भी छिड़ जातीं । एक दिन उस चाँदनीमे सरयूकी काली धाराके पास श्वेत सिक्तापर बैठी प्रभाकै रूपका चित्र वह अपने मनमें खींचने लगा । एकाएक उसके मुंहसे उद्गार निकल आया--"प्रभा, तुम मेरी कविता हो । तुम्हारी ही प्रेरणाको पाकर मैने “उर्वशी-वियोग लिखा । तुम्हारी यह रूपराशि मुझसे कितने ही काव्य-सौन्दर्यको रचना कराएगी। कविता भीतरकी अभिव्यक्ति बाहर नहीं है, बल्कि वह बाहरकी अभिव्यक्ति भीतर है, इस तत्त्वको मुझे तुमने समझाया, प्रिये ! | अभी अश्वघोषकी बातको सुनते-सुनते शीतल सिकतातलपर लेट रही। उसके दीर्घ अम्लान केशको बालूपर फैलते देख अश्वघोषने उसके सिरको अपनी गोदमे ले लिया। नेत्रोंको ऊपरकी और करके प्रभा अश्वधोपके मुखकी रूपरेखा देख रही थी। अश्वघोपकी बातको सम्माप्तिपर पहुँचते देख प्रभाने कहा-'मै तुम्हारी सभी बातोंको मानने के लिए तैयार हूँ। काव्य वस्तुतः साकार सौन्दर्यसे प्रेरित हुए बिना पूर्ण नहीं होता । मैं भी तुम्हारा काव्यमय चित्रण करती, और मूक चित्रण मै करती भी हूँ; किन्तु कविता मेरे बसकी बात नहीं है। मैंने उस दिन कहा था कि तुम्हें अपने भीतर दो अश्वघोपोंको देखना चाहिए, जिनमें