पृष्ठ:वोल्गा से गंगा.pdf/१९९

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१६८ वोलासे गंगा 'गरीबों-और जिनको यह नीच जातियों कहते हैं, व सभी गरीब हैं के लिए इनके धर्ममें कोई स्थान नहीं है ।। ‘हाँ, यवन, शक, आभीर दूसरे देशोंसे आईं जातियोंको इन्होंने क्षत्रिय, राजपुत्र मान लिया; क्योंकि उनके पास प्रभुता थी, धन था। उनसे इन्हें मोटी-मोटी दक्षिणा मिल सकती थी । किन्तु अपने यहाँकै शुद्रों, चण्डालों, दासोंको इन्होंने हमेशाके लिए वहीं रखा । जिस धर्मसे आदमीका हृदय ऊपर नहीं उठता, जिस धर्ममें आदमीका स्थान उसको थैली या डंडेके अनुसार होता है, मैं उसे मनुष्यके लिए भारी कलंक समझता हूँ । संसार बदलता है। मैंने ब्राह्मणोंके पुरानेसे आज तकके अन्यौमें आचार-व्यवहारौंको पढ़कर वहाँ साफ परिवर्तन देखा है, किन्तु आज इनसे बात करो, तो वह सारी बातोंको सनातन स्थिर मनवाना चाहते हैं। यह केवल जड़ता है, प्रिये । मैं तो कारण नहीं हो रही हूँ इन उद्गारोंके लिए, मेरे घोष ! कारण होना प्रशंसाकी बात है मेरी प्रभा ! तुमने मेरी कवितामें नया प्राण, नई प्रेरणा दी है। तुम मेरी अन्तद्दष्ट में भी नया प्राण, नई प्रेणा के मेरा भारी हित कर रही हो। किसी वक्त समझता था कि मैं ज्ञानके छोरपर पहुँच गया । ब्राह्मण इस झूठे अभिमानके बहुत आसानीसे शिकार हो जाते हैं; किन्तु अब जानता हूँ कि ज्ञान ब्राह्मणोंकी श्रुतियों, उनकी ताल तथा भुर्जपत्रकी पोथियों तक ही सीमित नहीं है, वह उनसे कही विशाल है। मैं एक स्त्री-मात्र हूँ। और जो स्त्री-मात्र होनेसे किसीको नीच कहता है, उसे मैं घृणाकी दृष्टिसे देखता हूँ । 'यवनोंमें स्त्रियका सम्मान तब्र भी दूसरोसे ज्यादा है। उनमें आज भी चाहे निस्सन्तान मर जाय; किन्तु एक स्त्रीकै रहते दूसरेसे व्याह नहीं हो सकता।