पृष्ठ:वोल्गा से गंगा.pdf/२००

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प्रभा १६६ और यह ब्राह्मण सौ-सौसे ब्याह कराते फिरते हैं सिर्फ दक्षिणाके लिए, छिः । मैं खुश हैं, जो कोई यवन ब्राह्मण-धर्मको नहीं मानता । ‘बौद्ध होनेपर भी पूजा-पाठके लिए हमारे यहाँ ब्राह्मण आते हैं । 'जब उन्होंने अपने स्वार्थ के लिए यवनोंको क्षत्रिय स्वीकार कर लिया है, तो उतना क्यों नहीं करेंगे-दक्षिणाकी जो बात ठहरी ।' | ‘तो क्या मैं तुम्हारे ब्राह्मणत्वकै अभिमानको दूर करनेमें कारण तो नहीं बनी है। 'बुरा नहीं हुआ । यदि ब्राह्मण-अभिमान मुझमें और तुममे मैद डालना चाहता है, तो वह मेरे लिए तुच्छ, घृणास्पद वस्तु है ।। यह जानकर मुझे कितनी खुशी है कि तुम मुझे प्रेम करते, हो, धौष । 'अन्तस्तमसे प्रिये ! तुम्हारे प्रेमसे वंचित अश्वघोष निष्ण जड़ रह जायगा । 'तो मेरे प्रेमको पुरस्कार, बरदान भी देना चाहते हो ? ‘उसी एक प्रेमको छोड़कर सब-कुछ । । 'मेरा प्रेम यदि मेरे शाश्वत अश्वघोष, युगके महान् कवि अश्वघोषको ज़रा भी हानि पहुँचा सका, तो उसे धिक्कार है। ‘साफ कहो, प्रिये ! 'प्रेममें मैं बाधा नहीं डालना चाहती; किन्तु मैं उसे तुम्हारे शाश्वत निर्माणमें सहायक देखना चाहती हूँ। और यदि मैं न रही-- | अश्वघोषने विक्षिप्तकी भाँति खड़े हो प्रभाको उठाकर जब दृढ़तापूर्वक अपनी छाती और गलेसे लगाया, तो प्रभाने देखा, उसके गाल भीगे हुए हैं। वह अवश्वघोषको बार-बार चूमती और बार-बार दुहराती रही-'मेरे अश्वघोष !: फिर थोड़ा शान्त होनेपर प्रमाने कहा-'सुनो मेरे प्यारे घोष, मेरा म तुमसे कुछ बङी चीज़ माँगना चाहता है, उसे तुम्हें देना चाहिए।

  • तुम्हारे लिए कुछ भी अदेय नहीं है प्रिये !