पृष्ठ:वोल्गा से गंगा.pdf/२०१

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२०० बौलासे गंगा फिर तुमने मुझे बात भी समाप्त नहीं करने दी है। *किन्तु तुम तो वज्र-अक्षर अपने मुंहसे निकालना चाहती थीं । लेकिन उस वज्र-अक्षरको शाश्वत अवघोषकै हितके लिए कहना ज़रूरी है। मेरा प्रेम चाहता है कि महान् कवि अश्वघोष अपने शाश्वत कवि-रूपकी भाँति प्रभाकै प्रेमको भी शाश्वत समकै, उसे सामने बैठी प्रभाके शरीरसे न नापे । शाश्वत अश्वघोषकी प्रभा शाश्वत तरुणी, शाश्वत सुन्दरी हैं। मैं बस इतना ही तुम्हारे मनसे मनवाना चाहती हैं। 'तो वास्तविक प्रभाकी जगह तुम काल्पनिक प्रभाको मेरे सामने रखना चाहती हो ? 'मैं दोनोंको वास्तविक समझती हूँ, मेरे घोष ! फर्क इतना ही है। कि उनमें से एक सिर्फ सौ या पचास वर्ष रहनेवाली है, दूसरी शाश्वत । तुम्हारी प्रभा तुम्हारे 'उर्वशी-वियोग में अमर रहेगी। मेरे प्रेमको अमर रखनेके लिए तुम्हें अमर अश्वघोषकी ओर ध्यान रखना होगा । और अब रात बहुत बीत गई, सरयूका तीर भी सोया मालूम होता है, हमें भी घर चलना चाहिए ।। और मैंने अमर प्रभाका एक चित्र अपने मन पर अकित किया है। ‘प्रियतम ! बस, यही चाहती हूँ।'–कहकर अश्वघोषके कपोलोंपर अपने रेशम-जैसे कोमल केशोंको लगा वह नीरव खड़ी रही। एक बड़ा आँगन है, जिसके चारों और बराम्दा और पीछे तितल्ले मकानकी कोठरियाँ हैं । बराम्दोंमें अरगनपर पीले वस्त्र सूख रहे हैं। आँगनके एक कोनेमें एक कुआँ तथा पास ही एक स्नान-कोष्ठक है। आँगनकी दूसरी जगहोंमें कितने ही वृक्ष हैं, जिनमें एक पीपलका है। पीपलके गिर्द वेदी है और फिर हटकर पत्थरको कटघरा, जिसपर हजारों दीपकोके रखनेके लिए स्थान बने हुए हैं। प्रभाने घुटने टेक उस सुन्दर