पृष्ठ:वोल्गा से गंगा.pdf/२०२

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वृक्षकी वंदना करके कहा-‘प्रिय, इसी जातिका वह वृक्ष था, जिसके नीचे बैठकर सिद्धार्थ गौतमने अपने प्रयत्न, अपने चिन्तन द्वारा मनकी भ्रान्तियों को हटा बोध प्राप्त किया, और तबसे वह बुद्धके नामसे प्रख्यात हुए । सिर्फ उसी मधुर स्मृतिके लिए हम इस जातिके वृक्षोंके सामने सिर झुकाते हैं । अपने प्रयक्ष, अपने चिन्तन द्वारा मनकी भ्रान्तिको इटा बोध प्राप्त करनेका प्रतीक | ऐसे प्रतीककी पूजा होनी चाहिए, प्रिये ! ऐसे . प्रतीककी पूजा अपने प्रयक्ष–आत्म-विजय---- पूजा है।' | फिर दोनों भदन्त धर्मरक्षितके पास गए। वह उस वक्त आँगनके एक वकुल वृक्षके नीचे बैठे थे, जहाँ नवपुष्पित फूलोकी मधुर सुगंधि फैल रही थी। प्रभाने बौद्ध-उपासिकाकी भाँति पंच-प्रतिष्ठितसे ( पैर के दोनों पक्षों-घुटनों, हाथकी दोनों हथेलियों और ललाटको धरतीपर रख कर ) वदना की। अश्वघोषने खड़े ही खड़े सम्मान प्रदर्शन किया। फिर दोनों ज़मीनपर पड़े चर्म-खंडों को लेकर बैठ गए । भदन्तके शिष्य अश्वघोषको वातचीत करनेके लिए आया समझ वहाँसे झुट गए। साधारण शिष्टाचारकी बातों के बाद अश्वघोषने दर्शनकी बात छेडी ।। धर्मरक्षितने कहा--ब्राह्मण-कुमार, दर्शनको भी जुद्धशानियों के धर्म में बंधन और भारी वंधन ( दृष्टि संयोजन | कहा गया है । तो भदन्त, क्या बुद्धके धर्म में दर्शनका स्थान नहीं है १ । श्थान क्यों नहीं, बुद्धका धर्म दर्शनमय है; किन्तु बुद्ध उसे वे भाँति पार उतरनेके लिए बतलाते हैं, सिरफर उठाकर होने के लिए नहीं। 'क्या कहा, बेड़ेकी भाँति १ 'हाँ, विना नाववाली नदीमें लोग बैङ्का बाँधकर उससे पार उतर जाते हैं, किन्तु पार उतरकर बेहेकी उन लकड़ियोंको उपकारी समझ सिरपर ढोते नहीं फिरते ।। | अपने धर्म के लिए भी जिस पुरुषको इतना कहनेकी हिम्मत थी, उसने जरूर सत्य और उसके बलको देखा होगा । भदन्त, बुद्धके दर्शन