पृष्ठ:वोल्गा से गंगा.pdf/२०६

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प्रभा २०५ 'मैं कई बार सोचता था, प्रियै, कि हम दोनों भाग चले । भाग चलें उस देशमें, जहाँ हमारे प्रेमकी कोई ईष्य करनेवाला न हो । जहाँ तुम प्रेरणा दो, मैं गीत वनाऊँ और फिर वीणापर हम दोनों गावें। यहाँ सिकता पर इस रात्रिमें मैं अपनी वीणा नहीं ला सकता। लोग आ पहुंचेंगे। उनसे कितनोंकी आँखें ई-कलुषित होंगी।' ‘प्रिय, बुरा न मानना । मैं कभी-कभी सोचती हैं, जब मैं न रही-- अश्वघोषने बाहों में कसकर प्रभाको छातीसे लगा लिया और कहा--'नहीं प्रिये, कदापि नहीं। हम इसी तरह रहेंगे ।। 'मैं दूसरे अभिप्रायसै कह रही हूँ, प्रिय ! मान लो, तुम न रहे, मैं अकेली रह गईं। दुनियामें ऐसा होता है कि नहीं ? होता है ।। ‘अपनी बार तुम नहीं तिलमिलाए, घोष ! तुम्हारे न रहनेपर शोक का पहाड़ केवल मेरे ऊपर टूटेगा इसीलिए न ११ “तुम मेरे साथ कितनी निष्ठुरता दिखला रही हो, प्रभा ! प्रभाने ओठोंको चूमकर अश्वघोषको हर्षोल्फुल्ल करते हुए कहा--- 'जीवनकी कईं दिशाएँ होती हैं। सदा पूर्णिमा ही नहीं, अमावस्या भी आती है। मैं यही कह रही थी कि एकके अभावमें दूसरेको क्या करना चाहिए तुम्हारे न रहनेपर, जानते हो, मैं क्या करूंगी है। मुंह गिराकर लम्बी साँस ले अश्वघोषने कहा---'कहो ।। मैं अपने जीवनको इर्गिज़ अन्त न करूंगी। भगवान् बुद्धने आत्महत्याको मूर्खतापूर्ण निन्दनीय कर्म कहा है । तुमने देखा न, मैंने इधर वीणामें बहुत सफलता प्राप्त की है। | ‘बहुत । प्रभा, कितनी ही बार तुम्हें वीणा देकर मैं निश्चिन्त हो गाता हूँ। “हाँ तो, उस वक्त मेरा अशाश्वत अश्वघोष मुझसे छिन जायगा; किन्तु मैं शाश्वत अश्वघोष—युग-युगके कवि-- की आराधना करूंगी । तुम्हारी वीणापर तुम्हारे गानोंको गाऊँगी, सारे जम्बूद्वीप और उससे