पृष्ठ:वोल्गा से गंगा.pdf/२०७

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३०६ बोलाासे गंगा बाहर भी; जीवन-भर, जब तक कि हमारा जीवन-प्रवाह किसी दूसरे देश-कालमें साकार हो फिर न सम्मिलित हो जायगा । और मेरे न रहनेपर तुम क्या करोगे, प्रियतम ? इन शब्दोंको सुनकर अश्वघोषको अन्तस्तमसे लेकर सारा शरीर कॅप गया, जिसे प्रमाने अनुभव किया । अश्वघोष बोलनेका प्रयत्न कर रहा था किन्तु उसका कंठ सूख गया था और उसकी आँखें बरसना चाहती थीं। कुछ क्षणके प्रयत्नके बाद उसने क्षीण-स्वरमें कहा---'बड़ी निष्ठुर होगी वह घड़ी ! किन्तु प्रभा, मैं भी आत्महत्या न करूंगा । तुम्हारे प्रेमकी प्रेरणा जो-जो गीत मेरै उरमें पैदा करेगी, उन्हें गाऊँगा, जीवनके अन्त तक । मैं तुम्हारे शाश्वत अश्वघोष---- अश्वघोषका कंठ रुद्ध हो गया है। 'सरयूकी धार सो रही है, प्रिय ! चलो, हम भी चलें । • ग्रीष्म ऋतु थी । माता सुवर्णाक्षी बीमार हो गई । अश्वघोष दिन रात के पास रहता था | प्रभा भी दिन-भर वहीं रहती । चिकित्साका “कोई असर न हुआ, और सुवर्णालीको अवस्था बिगड़ती ही गई। पूनो आई, दूधकी-सी चाँदनी छिटकी । सुवर्णाक्षीने अनि चाँदनीमें ऊपर ले चलनेको कहा। छतपर उसकी चारपाई पहुँचाई गई । उसका शरीर सिर्फ हडियोका अकाल रह गया था। रह-रहकर अश्वघोषके हृदयमें टीस लगती । मनै धीमे स्वर, किन्तु स्पष्ट अक्षरोंमें कहा-पुत्र, यह चाँदनी कितनी सुन्दर है । , उसी वक्त अश्वघोपके कानोंमें प्रभाके शब्द गुंजने लगे-'मुझे सरयूकी लहरें बुला रही हैं । उसका कलेजा सिहर उठी। माँने फिर कहा-“प्रमा कहाँ है, पुत्र ।

  • पिताके घर गई, माँ । शाम तक तो यहीं थी। *प्रमा ! मेरी बेटी ! अच्छा पुत्र, उसे कभी न भूलना'• }