पृष्ठ:वोल्गा से गंगा.pdf/२१०

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प्रभा ૨૬ वत्स; तुम्हारा शोक दारुण है । दारुण है; किन्तु मैं उसके कारण नहीं कह रहा हूँ । प्रभाने मुझको इसके लिए तैयार किया है। मैं जल्दी नहीं कर रहा हूँ ।। ‘तो भी तुम्हें कुछ दिन ठहरना होगा, संघ इतनी जल्दी नहीं करेगा । मैं प्रतीक्षा करूंगा, भन्ते, किन्तु संघकी शरणमे रहकर । *पहले तुम्हें अपने पितासे आज्ञा लेनी होगी। माता-पिताकी आज्ञा के विना सघ किसीको भिक्षु नहीं बनाती । 'तों मैं आशा लेकर अऊँगा।' ' अश्वघोष घरसे निकला | माँ उसके त्वस्थ मस्तिष्क-जैसे वचन सुनकर भी शंकित-हदया थीं, इसलिए वह भी पीछे-पीछे चली। सरयू पर नाव कर दोनोंने दिन भर नीचे की ओर धारको हुँदा; किन्तु कुछ पता नहीं मिला। अगले दिन और नीचे गए; किन्तु कही कुछ न था। अश्वघोषने घर जा पितासे भिक्षु होनेके लिए आज्ञा माँगी; किन्तु इकलौते बेटेको वह क्यों आशा देने लगा । फिर उसने कहा- मैं माँ और प्रभाकै शोकसे पीड़ित हो ऐसा नहीं कर रहा हूँ, तात ! मैंने अपने जीवनके लिए जो कार्य चुना है, उसका यही रास्ता है। तुम देख रहे हो मेरे स्वर, मेरी चेशमें किसी प्रकारके चित्त-विकारकी छाप नही है। मुझे इतना ही कहना है यदि मुझे जीवित रखना चाहते हो, तो आज्ञा दे दो, तात । 'अच्छा तो कल शाम तक सोचने का अवसर दो।' ‘मै सात दिन तक इन्तज़ार कर सकता हूँ, तात ! दूसरे दिन शामको पिताने आँखोंमें आँसू भरकर भिक्षु बननेकी आज्ञा दे दी। साकेतुके आर्य सवस्तिवाद संघने अश्वघोषको भिक्षु बनाया।