महास्थविर धर्मसेन उनके उपाध्याय और भदन्त धर्मरक्षित आचार्य बने । भदन्त धर्मरक्षित उसी समय नावसे पाटलिपुत्र (पटना) जाने वाले थे, उनके साथ ही अश्वथोषने भी साकेत छोड़ा।
भिक्षु अश्वघोषको पाटलिपुत्रके अशोकाराम (मठ) मे रहते दस साल हो गए थे। उन्होंने बौद्धधर्मकै साथ बौद्ध-दर्शन तथा वन-दर्शनका गम्भीर अध्ययन किया । मगधके महासंघके विद्वानों में अश्वघोषका बहुत ऊँचा स्थान था। इसी समय पश्चिमसे शक सम्राट् कनिष्क पूर्व की विजय करते पाटलिपुत्र पहुँचा । पाटलिपुत्र और मगध इस वक्त बौद्धधर्मके प्रधान केन्द्र थे । कनिष्ककी बौद्धधर्ममे भारी श्रद्धा थी। उसने भिक्षुसंघसे गन्धार ले जानेके लिए एक योग्य विद्वान् माँगा । सघने अश्वघषको प्रदान किया। राजधानी पुरुषपुर ( पेशावर में जाकर अश्वघोषने अपनेको एक ऐसे स्थान पाया, जद्द, शक, यवन, तरुष्क (तुर्क ) पारसी तथा भारतीय संस्कृतियोंका समागम होता था। यवन-नाट्यकलाको अश्वघोष पहले ही भारतीय साहित्यमे स्यान दिला चुके थे। यवन दर्शनके गम्भीर विवेचनके बाद उन्होंने उसकी कितनी ही विशेताओं, विश्लेषण-शैली तथा अनुकूल तत्वोंको ले भारतीय दर्शन-- बिशेषकर वौद्ध-दर्शन--को यवन-दर्शनकी देनसे समृद्ध किया । अश्वघोषने वौद्धोंके लिए यवन दर्शनसे लेनेका रास्ता खोल दिया । फिर तो दूसरे भारतीय विचारक भी मजबूर हुए, और वैशेषिक तथा न्याय इस रास्ते में सबसे आगे बढ़े--परमाणु, सामान्य, द्रव्य, गुण, अवयवी आदि तत्व इन्होंने यवन-दर्शनसे लिए। | प्रभाने हृदयको विशाल कर दिया था, इसलिए भदन्त अश्वघोष को निज-परका विचार नहीं था। प्रभाकी प्रेरणासे उन्होंने अनेक काव्य, नाटक कथानक लिखे, जिनमें कितने ही लुप्त हो गए। फिर भी