पृष्ठ:वोल्गा से गंगा.pdf/२१३

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१२-सुपर्ण यौधेय काल—४२० ई० मेरा भी भाग्यचक्र कैसा है । कभी एक जगह पैर जम नहीं सका । सुसारके थपेड़ोंने मुझे सदा चंचल और विह्वल रखा । जीवनमे मिठास के दिन भी आये, यद्यपि कटुताके दिनोंसे कम । और परिवर्तन तो वर्षान्तके बादलोंकी भाँति जरा दूर पर पानी, जरा दूर पर धूप। जान नहीं पड़ता यह परिवर्तन-चक्र क्या घुमाया जा रहा है। पश्चिमी उत्तरापथ गैधारमें अब भी मधुपर्कमें वत्समास दिया जाता है किन्तु मध्यदेश ( युकप्रान्त-विहार में गोमासका नाम लेना भी पाप हैवहीं गोब्राह्मण रक्षा सर्वश्रेष्ठ धर्म है। मुझे समझमें नहीं आता, आखिर धर्म में इतनी धूप-छाह क्यों ? क्या एक जगहका अधर्म दूसरी जगह धर्म होकर चलता रहेगा, अथवा एक जगह परिवर्तन पहिले आया हैं, दूसरी जगह उसीका अनुकरण किया जायेगा। मैं अवन्तीके ( मालवा ) के एक गाँव में क्षिप्राके तटपर पैदा हुआ, मेरे कुलवाले अपनेको मुसाफिरकी तरह समझते थे, यद्यपि वहाँ उनके अपने खेत थे, अपना घर था, जिन्हें वह अपने कंधेपर उठाकर नहीं ले जा सकते थे। मेरे कुलवालोंके डीलडौल, रंग-रूपमें गाँव और लोगोंसे कुछ अन्तर था—वह ज्यादा लम्बे-चौड़े, ज्यादा गौर, साथही दूसरोंकी शान न सहनेवाले थे। मेरी म गाँवकी सुन्दरतम् स्त्री थी, उसके गोरे मुखमंडलपर भूरे बाल बड़े सुन्दर लगते थे। इमारे परिवार के लोग अपनैको ब्राह्मण कहते थे, किन्तु मैं देखता था, गाँववालों को इसपर सन्देह था । सन्देहकी चीज भी थी वहाँके ब्राह्मणों में सुरा पीना महापाप था, किन्तु, मेरे घर में वह बराबर बनती और यी जाती थी | और उच्चकुलोंमे स्त्री-पुरुषका सम्मिलित नाच सुना भी नहीं