पृष्ठ:वोल्गा से गंगा.pdf/२१४

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सुपर्ण यौधेय जाता था, किन्तु मेरे कुल सात परिवार जो कि एकसे ही बढ़े थेशामसे ही अखाड़े में जुट जाते थे । अत्यन्त बचपन में मैंने समझा सभी जगह ऐसा ही होता होगा, किन्तु, जब मैं गाँवके और लड़कोंके साथ जगह ऐसी ही होता होगा, खेलते उनके व्यंग्य वचनको समझने लगा, तो मालूम हुआ था, कि या कि वह हमें अद्भुत तरहके आदमी समझते हैं, और हमारी कुलीनताको मानते हुए भी हमारे ब्राह्मण होने सन्देह करते हैं । हमारा गाँव एक बड़ा गाँव था, जिसमें दुकानें और बनियोंके घर भी थे। वहीं कुछ नागर परिवार थे, इन्हें लोग बनिया कहते किन्तु वह स्वयं हमारी भाँति अपनेको ब्राह्मण कहते, कई नागर कन्यायें हमारे कुल में आई थीं, यह भी एक कारण था, कि गाँववाले हमें ब्राह्मण माननेके लिये तैयार न थे। उनके ख्यालमै इम ब्राह्मणोंके खान-पान, शादी-ब्याहके नियमोंकी अवहेलना करके कैसे ब्राह्मण हो सकते हैं ? मेरे साथी लके जब कभी नाराज हो जाते तो मुझे बुझवा' कहकर चिढ़ाते । मै माँसे बराबर पूछता, किन्तु वह टाल देती। | अब मैं कुछ सयाना हो गया था, दस साल की उम्र थी, और गाँवमें एक ब्राह्मण गुरुकी पाठशालामें पढ़ने जाता था। मेरे सहपाठी सभी ब्राह्मण थे—लोगोंके कहनेके अनुसार सभी पक्के ब्राह्मण, और 'मैं तथा दो नागर विद्यार्थी थे, जिन्हें हमारे साथ कच्चे ब्राह्मण कहते थे। मैं गुरू जीका तेज विद्यार्थी था और उनका मुझपर विशेष स्नेह रहता था। हमारे कुलवालका स्वभाव, मुझमें था, ओर किसीकी बातको न सहकर मैं झगड़े पड़ता था । उस दिन मेरे किसी साथीने ताना मारा--"ब्राह्मण बना है, जुझवा कहींका ।” मैरे चचाके सरपुत (सालेके पुत्र ) ने मेरा पक्ष लेना चाहा, उसे भी कहा–यवन कहीं का नागर ब्राह्मण बना है। बचपनसे छोटे बच्चों को भी ताना मारते सुनता था; किन्तु उस वक्त वह न उतना चुभता था, न उसके भीतर इतनी कल्पना उठने लगती थी। पाठशालामें हम तीनोंको छोड़ वाकी तीस विद्यार्थी थे, चार कन्यायें भी थीं । जिनका रंग हम लोगों जैसा