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२१४ वोलपासे गंगा गोरा, शरीर हम जैसा लम्बा न था, तो भी हम देखते उनके सामने तीनों लोक झुकनेके लिये तैयार थे। | उस दिन घर लौटते वक्त मेरा चेहरा बहुत उदास था । मने मेरे सूखे ओठोंको देख मुंह चूमकर कहा "बेटा ! आज इतना उदास क्यों है ? मैंने पहिले मलना चाहा, किन्तु, बहुत आग्रह करने पर कहा "माँ हमारे कुलके बारे में कोई बात है जिसके कारण लोग हमें ब्राह्मण नहीं मानना चाहते।" "हम परदेशी ब्राह्मण हैं, वेटा ! इसीलिये वह ऐसा ख्याल करते हैं । “ब्राह्मण ही नहीं, अब्राह्मण भी माँ, इमारे ब्राह्मण होनेपर संदेह प्रकट करते हैं। इन्हीं ब्राह्मणोंके कहनेपर ।” “हमारे यजमान भी नहीं हैं, दूसरे ब्राझण पुरोहित करते हैं। ब्रह्मभोजमे जाते हैं, हमारे कुलमे वह भी नही देखा जाता । और तो और ब्राह्मण इमें एक पॅकम खिलाते भी नहीं । म ! जानती हो तो बतचा ।” भने बहुत समझाया, किन्तु मुझे सन्तोष नहीं हुआ। मेरा चित्त जब इस प्रकार चंचल रहता था, उस वक्त मेरे नागर सहपाठियों और संबंधियोंकी सहानुभति मेरे साथ रहती थी, अथवा हम सभी एक दूसरे के प्रति सहानुभूति प्रदर्शितकर लिया करते थे। समय और बीता, मै तेरह वर्ष का हो गया, और पाठशालाकी पढ़ाई समाप्त होनेवाली थी—मैने अपने वेद, ऋग्वेद, ऐतरेय ब्राह्मण, व्याकरण, निरुक्त, तथा कुछ काव्य पढ़े। गुरू जीका स्नेह मुझपर बढ़ता ही गया था। उनकी कन्या विद्या मुझसे चार वर्ष छोटी थी, पाठे याद करनेमे मैं उसकी सहायता करता था । और गुरू जी तथा