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सुपर्ण यौधेय

गुरू पत्नीके व्यवहारको देखकर विद्या भी मुझे बहुत मानती, मुझे भैया सुपर्ण कहती । मुझे गुरू परिवारसे कभी कोई शिकायत नहीं हो सकती थी, क्योंकि गुरू पत्नीका स्नेह मेरे लिये मौके समान था । इसी वक्त फिर किसी सहपाठीने मुझे जुझवाका ताना मारा; और अकारण, क्योंकि अब मै हर तरहसे बचकर रहता था। कारण इसके सिवाय और कोई न था, किं पढ़ने-लिखने में बहुत तेज होनेसे मेरे सहपाठीको मुझसे ईर्ष्या रहती थी। अब मेरी प्रकृति गंभीर होती जा रही थी। मन उत्तेजित न होता हो यह वात न थी, किन्तु मैंने धीरे-धीरे अपने पर नियंत्रण करना सीखा था। मेरे दादा आयु सत्तर वर्षसे ज्यादा थी, कितनी ही बार उनसे देश-विदेश, युद्ध-अशान्तिकी बातें सुनी थीं। मै यह भी सुन चुका था, कि इस प्राममें पहले वही अपने भाइयों के साथ आये थे। मैंने आज दादासे अपने कुलके बारेमें अल्ली बात जाननेका निश्चयकर लिया। गाँवसे पूरब और हमारा मौका एक बाग था। आम खूब फले हुए थे, यद्यपि उनके पकने में देर थी, किन्तु अभीसे सोना दासीने यहाँ अपनी झोपड़ी लगा ली थी। मैंने सुन रखा था, कि जब मेरे दादा गाँव में आये, उसी वक्त उन्होंने सोनाको चालीस रौप्य मुद्रा ( रुपये में किसी दक्खिनी व्यापारीसे खरीदा थाउस वक्त दक्खिनसे दास-दासियौंको बेचनेके लिये कितने ही व्यापारी आया करते थे। सोना उस वक्त जवान थी, नहीं, तो दासियाँ अभी उतनी महँगी न थीं । काली-कलूटी सोनाके चमड़े अब झूल गये थे, उसके चेहरे पर चंबल, बैतवाके टेढ़े-मेढ़े नाले खिचे हुए थे, किन्तु कहा जाता है, जवानीमै वह सुंदर थी । दादाके वह मुंहलगी रहती थी, खासकर जब वही दोनों रहते थे। घनिष्टताको लोग और और अर्थ भी लगाते थे—एक विधुर स्वस्थ प्रौढ़ व्यक्ति कपर वैसा सन्देह स्वाभाविक या । शामको दादा बाग़ जाया करते थे, एक दिन मैं भी उनके साथ हौ लिया। दादा अपने मेधावी पोते पर बहुत त्नेह रखते थे । और बाते करते करते मैंने कहा