पृष्ठ:वोल्गा से गंगा.pdf/२२२

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२२१ सुप यौधेय “लेकिन वह वस्तुतः हैं कौन दादा ! **समुद्र तीरके यवन हैं, बच्चा। उनमें बहुतसे ब्राह्मण नहीं बौद्धधर्मको मानते हैं। उज्जयिनीमें जानैपर मालूम होगा। अभी तो ऐसे भी बहुतसे हैं, जो अपनेको साफ यवन कहते हैं । ब्राह्मण इन्हें क्षत्रिय मानने के लिए बहुत कह रहे हैं।" | तो वर्ण और जातियाँ इस मानने-मनवाने पर चल रही हैं। दादा ! देखने में तो ऐसाहीं आ रहा है वच्चा !" मैं अब बीस सालका बलिष्ट सुन्दर तरुण था और अपने गाँव पढ़ना समाप्त कर अब मैं उज्जयिनी के बड़े बड़े विद्वानोंका विद्यार्थी था। मेरी माँके ननिहालके लोग उज्जयिनीकै धनाढ्य नागरोंमें थे, और उन्होंने आग्रह करके मुझे अपने पास रखा था। मेरे जैसे गाँव के विद्यार्थीके लिये उज्जयिनी विस्तृत संसारके देखने के लिये गवाक्षसी थी। कालिदासका नाम और उनकी कुछ कविताओंको मै पहिले पढ़ चुका था, किन्तु यह कुछ दिन उसे उस महान कविके पास पढ़ने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। कविका चंद्रगुप्त विक्रमादित्यके दर्बारमे बहुत मान था, इसलिये वह बहुत समय उज्जयिनी से अनुपस्थित रहते थे। मुझे अपने कविगुरुको अमिमान था, किन्तु कालिदासको राजाके संवघकी दास-मनोवृत्ति बहुत बुरी लगती थी। उस समय कवि ' कुमारसम्भव' को लिख रहे थे, मुझे उन्होंने बतलाया था, कि विक्रमादित्यके पुत्र कुमार गुसको ही मै यहाँ शुकरपुत्र कुमार कार्तिकेयके नामसे अमरता प्रदान करना चाहता हूँ । मेरे निस्संकोच कटाक्षसे उसके कड़वी होते भी कवि नाराज न होते थे। मैंने एक दिन कहा

  • आचार्य | आपकी काव्य-प्रतिभाका राज्य अनन्तकालके लिये है, और चंद्रगुप्त, कुमारगुतका राज्य सिर्फ उनके जीवन भरके लिये, फिर अपनेको क्यों राजाओंके सामने इतना अकिंचन बनाते हैं।”