पृष्ठ:वोल्गा से गंगा.pdf/२२४

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सुवर्ण यौधेय २२३ "सफलता अपना राज्य स्थापित करनेकी, दूसरे चंद्रगुप्त मौर्य बनने की । लेकिन चाणक्यको अप्रतिभ बुद्धिकी सहायतासे स्थापित और व्यवस्थापित मौर्य साम्राज्य भी बहुत दिनों नहीं चला। विक्रमादित्य और कुमारगुप्तके वंशज भी यावच्चंद्र दिवाकर शासन नहीं करेंगे, फिर इन्होंने प्रजाके शासनके चिह्नों तकको जो मिटा दिया, यह किस धर्म कामके लिये १ क्या अनादिकालसे चले आते गणोंमे प्रजाशासनका उच्छेद करना महान् अधर्म नहीं है १) । "लेकिन, राजा विष्णुका अंश है।" कुमारगुप्त भी अपने साथ मोरका चित्र खिंचवायेगा, और कल को कोई कवि उसे कुमारका अवतार कहेगा। यह धोखा, यह पाखंड किसलिये १ गधशालका भात और मधुर मास-सुपके लिये, राष्ट्रकी सारी सुन्दरियोंको रनिवासमें भरनेके लिये, कृषि और शिल्पके काममें मरने वाली प्रजाकी गाढ़ी कमाईकी मौज करनेमें पानीकी तरह वहानेकै लिये | और इसके लिये आप गुसको धर्म संस्थापक राजा कहते हैं। विष्णु १ हाँ, गुप्त वैष्णव कहलानेका बड़ा ढोंग रच रहे हैं, ब्राह्मण उन्हें विष्णुका अश बना रहे हैं, उनके सिक्कों पर लक्ष्मीकी मूर्ति अॅक्ति की जा रही है। विष्णुकी मूर्तियों और देवालयों पर प्रजाको भूखा मार कर, लूटकर खूब रुपये खर्च किये जा रहे हैं, इस आशा पर कि गुप्त वशका राज्य प्रलयकाल तक कायम रहै ।" लेकिन, तुम क्या कह रहे हो सुपएँ ! तुम राजाके विरुद्ध इतनी कड़ी बात कह रहे हो ।। "अभी आचार्य ! सिर्फ तुम्हारे सामने कह रहा हूँ, फिर किसी समय परमभट्टारक महाराजाधिराज कुमारगुसके सामने भी कहूँगा । मेरे लिये इस ढगको जीते जी बर्दाश्त करना मुश्किल है। किन्तु, वह आगे और शायद दूरकी बात है, मैं तो चाहता हूँ कि आप भी अश्वघोषके चरणों पर चलते ।। “किन्तु प्रिय ! मैं सिर्फ कवि हूँ, अश्वघोष महापुरुष और कवि