पृष्ठ:वोल्गा से गंगा.pdf/२२५

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२२४ वोल्गासे गंगा दोनों थे। उनके लिये संसारके भोग कोई मूल्य न रखते थे, मेरे लिये विक्रमादित्यके निवास जैसी सुन्दरियाँ चाहिये, उदुम्बरवर्णा (लाल) द्राक्षी सुरा चाहिये । प्रासाद और परिचारक चाहिये । मैं कैसे अश्वघोष बन सकता हूँ। मैंने रघुवंश' के बहाने गुप्तोंके रघुवंशित्वकी प्रशंसा की, जिससे प्रसन्न हो विक्रमादित्यने यह प्रासाद दिया, चिनमाला जैसी यवन सुन्दरी प्रदान की, जो पंद्रह सालसे मेरे पास रहनेपर भी अपने पिंगलकेशोंमें मुझे बाँचै फिरती है। मैंने यह 'कुमारसंभव' की नींव रखी है, यह देखो अभी और क्या मेरे पास लाता है। मैं नहीं समझता आचार्य | यदि आप बुद्धचरित' और *सौंदरानन्द' ही लिखते, तो भूखों मरते, या भोगसे सर्वथा वंचित ‘होते, पर आपको भ्रम हैं, कि बिना राजाओंकी चापलुसीके आपका जीवन विल्कुल नीरस होता। आपने आनेवाले कवियोंके लिये बुरा उदाहरण रखा, सभी कालिदासके अनुकरण के नामपर अपने दोषको छिपायेंगे । मैं उस तरह के भी काव्य लिखेगा । किन्तु, ऐसा कुछ भी नही लिखेंगे जिसमें गुसके पापघट पर प्रहार होगा ! वह हमसे नहीं होगा सुपर्ण | हम इतने सुकुमार हो गये हैं । "और राजाओंके हर पापके लिये धर्मको दोहाई भी देंगे ? उसकी तो जरूरत है, विना उसके राजशक्ति दृढ नहीं हो सकती । वशिष्ट, और विश्वामित्रने भी ऐसा करना जरूरी समझा ।” “वशिष्ट और विश्वामित्र भी कवि कालिदास होकी भाँति प्रसाद और सुंदरीके लिये यह सब पाप करने पर उतारू थे ।” । 'सुपर्ण ! पुस्तकी विद्याके अतिरिक्त सुना है, तुम युद्ध-विद्या भी सीख रहे हो । यदि तुम्हारी सम्मति हो, तो परम भट्टारक से कहूँ, तुम्हें कुमारामात्य या सेनानायकके पद पर देखकर मुझे बहुत खुशी होगी, महाराज भी पसंद करेंगे।"