पृष्ठ:वोल्गा से गंगा.pdf/२२६

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२५ सुपर्णं यौधेय "मै:किसीको अपना शरीर न बेचेंगा, आचार्य । “अच्छा राज पुरोहितों में स्थान कैसा रहेगा है। “ब्राह्मणों के स्वार्थीपनसे मुझे बहुत चिढ़ है।” तो क्या करोगे १३ *अभी विद्या और पढ़नेको है।” उज्जयिनीमें रहते मैने अपनी विद्याकी पिपासाको तृप्त करनेका ही मौका नहीं पाया, बल्कि जैसा कि मैंने कहा, मुझे विस्तृत संसारको जाननेको भी मौका मिला। वहाँ मैंने नजदीकसे देखा, किस तरह ब्राह्मणोंने अपनेको राजाओंके हाथमे पूर्णतया वैच डाला है। कोई :, समय था, जब कि दूसरों के न स्वीकार करनेपर भी मुझे ब्राह्मण होनेका भारी अभिमान था, गाँव छोड़नेसे पहले ही यह अभिमान जाता रहा था। गाँवसे नगरमें आनेपर मैंने अस्ली यवनोंको देखा, जो कि भरुकच्छ ( भड़ौच से अक्सर उज्जयिनी आते थे, और वहाँ उनकी कितनी ही बड़ी बड़ी पण्यशालायें थीं, मैं कितने ही शक-अभिीर परिवारों में गया, जिनके पूर्वज शताब्दी ही पहिले उज्जयिनी, लाट ( गुजरात ) और सौराष्ट्र (काठियावाड़ )के शासक महा क्षत्रप थे। मैंने पक्क नारगस्पर्धी गालों; रोमहीन मुख–गोल गोल आँखोंवाले हूणोंको भी देखा। युद्ध में वह निपुण हो सकते थे, किन्तु जैसे उन्हें प्रतिभाका धनी नहीं पाया। इन तरह तरह के पुरुषोंके देखनेसे सबसे अच्छे स्थान बौद्धोंके विहार मठ ) थे, जो एकसे अधिक संख्यामें उज्जयिनीके बाहर मौजूद थे। मेरे मातुल कुलके लोग बौद्ध थे, और कितने ही नागर भित्तु भी इन मोंमे रहते थे, इसलिये मुझे अक्सर वहाँ जाना पञ्चता था। मैं एक वार भरुकृच्छ भी गया था । पुस्तककी पढाई समाप्त कर मैंने देशाटन द्वारा अपने ज्ञानको बढाना चाहा, उसी वक्त मुझे पता लगा कि विदर्भ में अचिन्त्य १Y