पृष्ठ:वोल्गा से गंगा.pdf/२२८

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सुपर्ण यौधेय करते, स्वर्णकार, लौहकार, चर्मकार अपनी अपनी वस्तुओंके बनाने में कौशल दिखला देते, राजप्रासादोंकी कलापूर्ण वस्तुओंके तैयार करने वाले हाथ इन्हीं हार्थोके सगे संबंधी हैं, किन्तु जब मै उनके शरीरों, उनके घरोंको देखता, तो पता लगता कि उनके हाथके निर्मित सारे पदार्थ उनके लिये सिर्फ सपनेकी माया है। वह गाँवोंसे सिमिट थिमिटकर नगरों, निगमोंके सौधों, प्रासादों, या पयागारोंमें चले जाते; फिर वहाँ से भी उनका बहुतसी भाग पश्चिमी समुद्रके भरुकच्छ आदि तीर्थों से पारस्य ( ईरान ) या मिश्रका रास्ता लेता, या पूर्वी समुद्र ताम्रलिप्त ( तमलुक )से यवद्धीप ( जावा ), सुवर्णदीप ( सुमात्रा ) पहुँच जाता । भारतको सामुद्रिक वाणिज्य इतना प्रबल कभी नहीं हुआ, और अपने पएयोंके लिये समुद्र पारकी लक्ष्मी कभी भारतमें इतनी मात्रामें नहीं आई होगी, किन्तु उससे लाभ किसको था ? सबसे अधिक गुप्त राजाओं को जो हर पण्य पर भारी कर लेते थे, फिर सामन्तोंको जो बड़े-बड़े राजपदों या जागीरोंके स्वामी थे, और शिपियों और बनियों दोनोंसे लाभ उठाते थे। सार्थवाहों तथा बनियोका नाम अन्त में आनेपर भी वह इस लुटके छोटे हिस्सेदार न थे। इस सबके देखने से मुझे साफ हो गया कि गाँवकै कृषक और शिल्पी क्यों इतने गरीव हैं; और मार्गों और राजपथको सुरक्षित रखने के लिए गुप्तराजा क्यों इतने तत्पर मालूम होते हैं। | गाँवोंमें दरिद्रता थी, किन्तु, एक दिल दहलाने वाला दृश्य वहीं कम दिखलाई पड़ता था। वहीं, पशुओं की भाँति विकनेवाले दासदासियोंका हाट न लगता था, न उनके नंगे शरीरॉपर कोड़े पड़ने के दृश्य दिखाई देते थे । मेरे गुरु कालिदासने एक प्रसंग में कहा था, कि दास-दाधी पुरुविले कर्मसे होते हैं। जिस दिन मैने उनके।मुंहसे यह बात सुनी उसी दिन पुरविले जन्मसे मेरा विश्वास उठ गया । गुप्तने जिस तरह धर्मको सैकड़ों तरहसे अपनी सत्ता दृढ करने लिये इस्तेमाल करनेमें उतावलापन दिखलाया था, उससे इस समय यह ख्याल हर समझदार