पृष्ठ:वोल्गा से गंगा.pdf/२२९

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२२८ चोल्गासे गंगा के मनमें आना स्वाभाविक था। किन्तु, 'जब मैं साधारण प्रजा को देखता तो वह इस तरफसे विल्कुल उदास थी । क्यों ? शायद वह अपने को वैबस पाती थी। ग्रामवासी सिर्फ अपने गाँवभरकी दुनियाकी खोज खबर लेते थे, गाँवकी अंगुलभर भूमिके लिए वह उसी तरह लड़ सकते थे, जिस तरह कि शायद कुमारगुप्त भी अपनी किसी झुचि (प्रान्त, सूवा ) के लिए भी न लड़ता है किन्तु, गाँवकी सीमाके बाहर कुछ भी होता हो, उसकी उन्हें पर्वाह नहीं। मुझे एक गाँवकी घटना याद है, उस गाँवमें चालीसके करीव धर थे, सभी फुसकी छत वाले । गर्मीमे चूल्हेसे एक घरमें आग लग गई। सारे गाँवके लोग पानी ले लेकर उस घरकी और दौड़ गए, किन्तु, एक घर के दम्पतिं धड़ों में पानी भरकर अपने घरके पास बैठे रहे । सौभाग्यसे उस गाँवमें ऐसा घर एक ही था। नही तो गाँवका एक घरभी न वचवा । इस वक्त मुझे यौधेयका गण याद आया; जहाँ एक राष्ट्रके सभी घर अपने सारे राष्ट्रके लिये मरने जीनेको तैयार थे। समुद्रगुप्त, चद्रगुप्त, कुमारगुप्तकी दिग्विजयोंके लिए भी लाखोंने प्राण दिए, किन्तु, दासोंकी भाँति दूसरे के लाभके लिये, स्वतंत्र मानवकी भाँति अपने और अपनोंके हितके लिए नहीं। मेरा रो काँप उठता, जब कि प्रजापर सिर्फ एक सौ वर्षके इस गुप्त शासनके प्रभावको ख्याल करता। मैं सोचता यदि ऐसा शासन शताब्दियों तक चलता रहा, तो यह देश सिर्फ दासोंका देश रह जायेगा, जो सिर्फ अपने राजाओं के लिये लड़ना-मरना भर जानेंगे, उनके मनसे यह ख्याल ही दूर हो जायेंगे, कि मानवके भी कुछ अधिकार हैं। अचिन्त्य विहार वा ही रमणीय विहार था । एक हरितवसना पर्वतस्थलीको एक अर्धचन्द्राकार प्रवाह वाली नदी काट रही थी, इसी क्षुद्र किन्तु, सदानीरा सरिताके वाये तट पर अवस्थित शैलको काटकर शिल्पिोंने कितने ही गुहामय सुन्दर प्रतिमा गेह, निवासस्थान, तथा सभा भवन बनाये । इन गुहाओं को भी प्रासादोंकी भाँति चित्रों, मूर्तियोंसे