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वोल्गा से गंगा

सूरने एक डंठल से रेशा निकाला, फिर उसमे लाल, सफेद, बैंगनी फूलों को गूँथना शुरू किया। उसके फूलों के क्रम में सुरचि थीं। बालों को उसने सँभालकर पीठ पर फैला दिया। गर्मी के दिनों में वोल्गा-तीर के तरुण तरुणियाँ अकसर नहाने-तैरने का आनन्द लेते हैं, इसलिए दिवा के केश साफ सुलझे हुए थे। सूर ने बालों पर तेहरी मेखला की भाँति --सज-- को सजाया और फिर बीच में सफेद तथा किनारे पर बैंगनी फूलों के एक गुच्छे को ललाट के ऊपर कैशों में खोंस दिया। दिवा शिलातल पर बैठी रही। सूर ने थोड़ा हटकर उसके चेहरे को देखा। उसे वह सुन्दर मालूम हुई। थोड़ा और दूर से देखा। वह और भी सुन्दर मालूम हुई, किन्तु वहाँ फूलों की सुगन्धि न मिलती थी। सूर ने पास बैठकर अपने गालों को दिवा के गालों से मिला दिया। दिवा ने अपने साथी की आँखें चूम लीं, और दाहिने हाथ को उसके कन्धे पर रख दिया। सूर ने अपने बायें हाथ से दिवाकी कटि को लपेटते हुए कहा—
'दिवा ! ये फूल पहले से अधिक सुन्दर हैं।'
'फूल या मैं ?'
सूरको कोई उत्तर नहीं सूझा, उसने जरा रुककर कहा—
'मैंने हटकर देखा, तुझे ज्यादा सुन्दर पाया। और हटकर देखा, और सुन्दर पाया। और यदि वोल्गा-तटसे देखता?
'नहीं, उतनी दूरसे नहीं।—'
सूर की आँखों में चिन्ता की झलक उतर आई थी। 'दूर से तेरी सुगन्धि जाती रहती है, और रूप भी दूर हो जाता है।
'तो सूर ! तू मुझे दूरसे देखना चाहता है या पास रहना चाहता है?'
'पास रहना, दिवा ! जैसे दिवा के पास चमकता सूर।
'आज मेरे साथ नाचेगा दूर?'
'जरूर।'