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२३१ सुपर्ण यौधेय फंदा है, जिसमें कितने ही बौद्ध गृहस्थ भी फसते जा रहे हैं। इस फूट से प्रजाकी शक्तिको छिन्न-भिन्नकर वह राजशक्ति और ब्राह्मण-शक्तिको इढ़ करना चाहते हैं, किन्तु इसका परिणाम घातक होगा, सुपर्छ । देशके लिये, क्योंकि दासोंकी शक्तिके बलपर कोई राष्ट्र शक्तिशाली नहीं हो सकता ।" मैंने अपने यौधेयके आत्मोत्सर्गकी कहानी कही, तो आचार्यका हृदय पिघल गया । जब मैंने यौधेयगणके पुनरुज्जीवनकी अपनी लालसाको उनके सामने प्रकट किया, तो उन्होंने कहा- मैरी सदिच्छी और आशीर्वाद तुम्हारे साथ है। उद्योगी पुरुषसिंहको विन्नबाधाओंसे नहीं डरना चाहिये ।” उनके आशीर्वादको लेकर मैं जा रहा हूँ यौधेयोंकी भूमिकी ओर, चाहे तो उस मृत भूमिका फिरसे उत्थान करूंगा, या रेतके पदचिह्नकी भाँति मिट जाऊँगा ।