पृष्ठ:वोल्गा से गंगा.pdf/२३३

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१३-दुर्मुख काल-- ६३० ई० मेरा नाम हर्षवर्धन है। शीलादित्य या सदाचारका सूर्य मेरी उपाधि है। चन्द्रगुप्त द्वितीयने अपने लिए विक्रमादित्य (पराक्रमका सूर्य) उपाधि पसन्दकी और मैंने यह कोमल उपाधि स्वीकार की। विक्रम दूसरेको दबाने, दूसरेको सतानेकी भावना होती है; किन्तु शील (सदाचार) में किसीको दबाने तपानेकी भावना नहीं है । गुप्तोंने अपने लिए परम वैष्णव कहा । मेरे ज्येष्ठ भ्राता राज्यवर्धन-जिनको गौड़ शशांकने विश्वास-घातसे तरुणाईमें ही मार डाला और जिसका स्मरण करके आज भी मेरा दिल अधीर हो जाता है—परम सौगत (परम बौद्ध) थे, सुगत (बुद्ध) की भाँति वह क्षमा-मूर्ति थे। अपनेको सदा उनका चरण-सेवी मानते हुए मैंने अपने लिए परम माहेश्वर (परम शैव) होना पसन्द किया; किन्तु शैव होनेपर भी मेरे हृदयमें बुद्रुकी भक्ति कितनी थी, इसे भारत ही नहीं, भारतके बाहरकी दुनियाँ भी जानती है। मैंने अपने राज्यके सारे धुमका सम्मान किया है-प्रजाजनके ही लिए नहीं, बल्कि अपने शील (सदाचार)के संरक्षणके लिए भी । हर पाँचवे साल राज-कोषके बचे धनको प्रयाग में त्रिवेणी के तौर ब्राह्मयों और श्रमणों (बौद्ध भिक्षुओं)में बाँटता था। इससे भी सिद्ध होगा कि मैं सभी धर्मों की समान अभिवृद्धि चाहता रहा। हाँ, मैंने समुद्रगुप्तकी भाँति दिग्धिजयके लिए यात्रा की थी, लेकिन वह शीलादित्य नाम धारण करनेसे पहले । यह आप न ख़याल करे कि यदि दक्षिणापथके राजा पुलकेशीके सम्मुख असफल न हुआ होता, तो विक्रमादित्यकी तरह ही कोई पदवी मैं भी धारण करता । मैं सारे भारतका चक्रवर्ती होकर भी चन्द्रगुप्त नहीं, अशोकके कलिंगविजयकी भाँति पश्चात्तापकर शील द्वारा मनुष्यों की विजय करता-मेरा स्वभाव ऐसा ही कोमल है।