पृष्ठ:वोल्गा से गंगा.pdf/२३५

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२३४ वोल्गासे गंगा मैं चाहता था, सभी अपने-अपने धर्मका पालन करें। अपने धर्म पर चलना ही ठीक है। इससे संसारमें शान्ति और समृद्धि रहती है, और परलोक बनता है। सभी वर्णवाले अपने वर्ण-धर्मका पालन करें, सभी आश्रमवाले अपने आश्रमका पालन करे, सभी धर्म-मत अपने श्रद्धाविश्वासके अनुसार पूजा-पाठ करें--इसके लिए मैं सदा प्रयत्नशील रही। । कामरूप (आसाम) से सौराष्ट्र (काठियावाड़) और विन्ध्यसे हिमालय तक अपने विस्तृत राज्यमें मैंने न्यायका राज्य स्थापित किया । मेरे अधिकारी (अफसर) जुल्म न करने पाये, इसके लिए समय समयपर मै स्वय दौरा करता था। मैं इसी तरहके एक दौरे पर था, जबकि ब्राह्मण वाण मेरे बुलानेपर मेरे पास आया था। अपने जाने उसने मेरी कीर्ति बढ़ानी चाही; किन्तु, मैं समझता हूँ, यात्रामें भी जिस तरह के मेरे राजसी ठाट-बाटका वर्णन उसने किया है, वह मेरा नहीं, किसी विक्रमादित्यके दरबारका हो सकता है। मेरी जीवनी (हर्ष-चरित) वह चुपके-चुपके लिख रहा था। मुझे एक दिन पता लगा, तो मैने पूछा। उसने लिखित अंश मुझे दिखाया। मैंने उसे बहुत नापसन्द किया और डाँटा भी, जिसका एक परिणाम तो ज़रूर हुआ कि वह उतने उत्साहसे आगे न लिख सका । उसकी कादम्बरीको मैंने अधिक पसन्द कियायद्यपि उसमे राज-दरबार, रनिवास, परिचारक-परिचारिका, प्रासाद, आराम आदिका ऐसा वर्णन किया गया है, जिससे लोगों को खामखाह भ्रम होगा कि यह सारा वर्णन मेरे ही राज-दरबारका है। मुझे अपनी पारसीक रानीसे बहुत प्रेम रहा है। वह नौशेरवाँकी पोती ही नहीं है, बल्कि अपने गुणों और रूपसे किसी भी पुरुषको मोह ले सकती है। वाणने उसीका महाश्वेताके नामसे वर्णन किया। मेरी सौराष्ट्री रानी कुछ उमर ढलनेपर आई थी। उसके दिलको सन्तुष्ट करने के लिए मैंने उसके निवासको सजानेके लिए कुछ विशेष आयोजन किया था। वाणने उसे ही कादम्बरी और उसके निवासके रूपमें अंकित कर दिया है। वाणकी