पृष्ठ:वोल्गा से गंगा.pdf/२३६

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रचनामें इन दो बातोंको छोड़ बाकी किसी वर्णनको मेरा नहीं समझना चाहिए, या बहुत अतिशयोक्तिपूर्ण समझना चाहिए। मैं अपने अन्तिम दिनोंमें अनुभव कर रही हैं कि वाण मेरा हितैषी साबित नहीं होगा । वणिकै ‘हर्षचरित' ही में नहीं, ‘कादम्बरी' में भी ओ कुछ राजा और उसके ऐश्वर्य’ बारेमें वर्णन किया गया है, उसे लोग मेरा ही वर्णन कहेंगे । और फिर 'नागानन्द', 'रत्नावलि' और *प्रियदर्शिका' नाटकको तो उसने मेरे नामसे लिखकर और भी अनर्थ किया है । लोग कहेंगे, कीर्त्तिका भूखा होकर हर्षने पैसे दे दूसरे ग्रन्थों को अपने नामपर मोल ख़रीदा। मै सच कहता हूँ, मुझे इस बातका पता बहुत पीछे लगा, जब कि हज़ारों विद्यार्थी मेरे नामसे इन ग्रन्थको पढ चुके थे और कितनी ही बार वे खेल भी जा चुके थे ।। मैं अपनी प्रजाको सुखी देखना चाहता था। मैंने उसे देखा। मैं अपने राज्यको शान्त और निरापद देखना चाहता था। अन्तमे वह साध भी पूरी होकर रही, और लोग उसमें सोना उछालते हुए एक जगहसे दूसरी जगह जा सकते थे। मेरे कुलके बारे में अभी ही पीठ-पीछे लोग कहने लगे हैं कि वह बनियका कुल है। यह विल्कुल गलत है। हम वैश्य क्षत्रिय हैं। वैश्य बनिये नहीं । किसी समय हमारे शातवाहन-कुन में सारे भारतका राज्य था। शातवाहन राज्यके ध्वंसके बाद हमारे पूर्वज गोदावरी-तीरकै प्रतिष्ठानपुर ( पैठन )को छोड़ स्थाण्वीश्वर (थानेसर) चले आये । शातवाहन (शालिवाहन) वंश कभी वनिया नहीं था, यह सारी दुनिया जानती है; यद्यपि उसका शक क्षत्रियोंके साथ शादी-ब्याह होता था, जो राजाओंके लिए उचित ही है। मेरी भी प्रिया महाश्वेता पारसीक राजवंशकी है। वाण मेरा नाम है। मैंने कितने ही काव्य-नाटक लिखे हैं, जिनकी कसौटीपर ही लोग मुझे करना चाहेंगे, इसीलिये मुझे यह लेख लिखकर